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Saturday, June 20, 2020

ड्रैगन की पूंंछ नहीं उसका फन कुचलिए!


जयराम शुक्ल
विंध्य का एक और सपूत मातृभूमि की रक्षा करते हुए सीमा पर शहीद हो गया। रीवा जिले के फरेदा गाँव का दीपक सिंह उन 20 जाँबाजों में से एक हैं जिनकी शहादत हुई। चीन के इस ताजा विश्वासघात से समूचा देश गुस्से में है। क्रोध से धमनी और शिराएं फड़क रही हैं। शहर-शहर, गाँव-गाँव, गली-गली की चर्चाओं में चीन है। सभी उसे सबक सिखाने की बात कर रहे हैं। एक स्वर से यह आवाज निकल रही है कि चीनी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए, इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में चीन ने जितने भी ठेके हथियाए हैं देश की सुरक्षा को आधार बनाकर उन्हें तत्काल टर्मिनेट किया जाए।
 इस मामले यदि जरूरत पड़े तो भारत डब्ल्यूटीओ की वैसी ही परवाह न करे जैसे कि अमेरिका अब डब्ल्यूएचओ की नहीं कर रहा। देश में उबाल युद्ध और आर्थिक मोर्चे दोनों पर है। यह 1962 का हिंदुस्तान नहीं 2020 का समर्थ भारत है इसलिए चीन के इस विश्वासघात का बदला नहीं लिया गया तो आने वाली सदियों तक आज के हुक्मरानों की याद करके उनके मुँह में जनता थू-थू करती रहेगी। चीनी सेना से यह खूनी संघर्ष पारंपरिक सैन्य युद्ध नहीं है जो बंदूक-तोपों से लड़ा जाता है। सीमा में जबरिया घुसने से रोकने पर आमने- सामने का यह द्वंद युद्ध है। 
चीनियों ने हमले के लिए पत्थर-राड-सरिए का इस्तेमाल किया..बकौल एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी के यह चीन की ओर से की गई माँब लिचिंग है। वैसे चीन के 43 सैनिकों के हताहत होने की बात की जा रही है..लेकिन हमारी भूमि पर दुश्मन के हाथों हुई हमारे सैनिकों की एक भी मौत अक्षम्य और असहनीय है। लद्दाख की गवलान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यह हुआ वह समूचा इलाका जिसे अक्साई चिन कहा जाता है हमारे देश के नक्शे में वैसे ही है जैसे कि पाक अधिकृत कश्मीर।  अक्साई चिन सदियों से भारत का हिस्सा रहा है और यहां से एक व्यापारिक रास्ता गुजरता है जिसे सिल्क रूट कहते हैं। जरा इतिहास की ओर लौटें। 1950 में चीन ने तिब्बत के पठार पर कब्जा कर लिया। चीन और तिब्बत के बीच निर्बाध आवागमन में यह इलाका आड़े आता था। लिहाजा 1962 में चीन ने इसे ही कब्जाने के लिए धोखा युद्ध किया। 
यह पहला विश्वासघात था। 1958 में चाऊएनलाई और पंडित नेहरू ने पंचशील के सिद्धांत पर हस्ताक्षर किए थे। चीन को तब पं.नेहरू इतना भरोसे का मानते थे कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता के लिए अपनी दावेदारी छोड़ दी थी।
हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा दोहराते हुए चाऊ अपने देश गए और फिर पूरी तैय्यारी के साथ हमला करके अक्साई चिन का 38000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हमसे छीन लिया। पाकिस्तान ने पीओके के हिस्से का 5180 वर्गकिलोमीटर का हिस्सा चीन को उपहार में दे दिया। इस तरह आज की तारीख में 43180 वर्गकिलोमीटर जिस क्षेत्र में चीन का कब्जा है वह सदियों हमारा रहा है। जिसे हम वास्तविक नियंत्रण रेखा कहते हैं वस्तुतः वह चीन की सीमा नहीं अपितु सन् 62 के युद्ध विराम की स्थित है..चीन यही तक पीछे गया था। अक्साई चिन हमारे लिए हिमालय की भाँति महत्वपूर्ण रहा है लेकिन पं.जवाहरलाल नेहरू और उनके तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन इसे भद्दे मजाक से ज्यादा कुछ नहीं माना। चीन युद्ध के उपरांत जब संसद में बहस हुई तो जवाब में पंडित नेहरू ने कहा था ..कि अक्साई चिन हमारे किस काम का जहां तिनके भी नहीं उगते। तब संसद में कांग्रेस के ही सदस्य महावीर त्यागी ने अपनी टोपी उतार कर गंजा सिर दिखाते हुए कहा था कि ..मेरे सिर में भी तो कोई बाल नहीं.. तो क्या इसे काटकर किसी को दे दें..।
बहरहाल.. समय की गति के साथ चीन का धोखा और हड़पनीति जारी रही। 1967 में भारतीय सेना ने चीन को अच्छे से जवाब दिया..और सैकड़ों की संख्या में चीनी सैनिकों को ऊपर पहुंचा दिया। इसके बाद हिंसक झड़प 1975 में दर्ज की गई। तब से छोटी मोटी कहा सुनी और डोकलाम जैसी धक्का मुक्की छोड़ दें तो ऐसी स्थिति पहली बार बनी जब चीन ने मामले को युद्ध की दहलीज तक लाकर खड़ा कर दिया है। अब सवाल यह कि जब चीन इतना बड़ा घाती है तो उसके साथ हमारे राजनयिक और व्यापारिक संबंध क्यों..। जबकि इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के पक्ष में ताल ठोककर खड़ा होता रहा। हमारे नेता भले ही समझने की कोशिश न करते हों लेकिन उसका कोई कदम कभी अप्रत्याशित नहीं रहा। 
'पयंपानम् भुजंगानाम केवलम् विष वर्धनम्' लेकिन चीन तो साँप के बाप का भी बाप ड्रैगन है। पलटकर डसने का इतिहास है उसका। इन छह सालों में हमारे प्रधानमंत्री पाँच बार वहां हो आए और मौके-बेमौके अठारह बार मिले। दोनों देश प्रमुखों का आनाजाना ऐसा रहा जैसे कि अपने-अपने फार्महाउस आए या गए हों। चीन के प्रधान साबरमती में झूला झूलने आए तो अपने प्रधान बीजिंग ड्रम और 'पिपिहरी' बजाने पहुँच गए। यह विदेश नीति किसी के पल्ले ही नहीं पड़ रही। पूरा बाजार चीनी माल से पटा है। यहां से मुनाफा कमाकर वह मुटल्ला हो रहा है और आँख भी दिखा रहा है और हम दुमछल्ला बने फिर रहे हैं।
चीन का वास्तविक चरित्र कोविड-19 के वायरस सा नहीं, निमोनिया के विषाणु जैसे है। जैसे निमोनिया के विषाणु जब अनुकूल मौसम देखते हैं तो फेफड़े को जकड़ लेते हैंं। चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी और उनका पाँलित ब्यूरो ठीक निमोनिया के विषाणुओं जैसा ही है। अंदाजा नहीं लगा सकते देश के किस कोने में कब घुस आए, विश्वमंच पर कब कहां दगा दे दे।
चीन के चरित्र में दगाबाजी घुली है। पिछली बार चीन प्रमुख अपने प्रधानमंत्री के साथ साबरमती में झूला झूलकर बीजिंग पहुंचे तो पीएलए की आर्मी को अरुणाचल में घुसेड़ दिया। और फिर डोकलम में पहुंच कर चिकन नेक पकड़ ली। 
साँप की पूँछ दबती है तो वह पलटवार करता है। ड्रैगन यानी अजदहा तो साँप का पुरखा है। चीन की हर युद्ध कला साँप की चाल से प्रेरित होती है। वह बीन बजाने वाले को भी डसने से नहीं छोड़ता। 
बहरहाल मुद्दे की बात ये कि अब भी चीन से उतना बड़ा खतरा सैन्यमोर्चे में नहीं है। जब उसकी नजर में विश्व बाजार है। बनिया कभी लंबी लड़ाई मोल नहीं लेता। किसी को ठिकाने लगाना है तो उसका मैंनेजर जा के किसी सूटर को सुपारी दे आता है। 
चीन के पास जब किराये का गुंडा पाकिस्तान है और अब एक और गिरहकट नेपाल है तो उसे फिकर किस बात की। यदि वह यूएनओ में लखवी, अजहर मसूद, हाफिज सईद की पैरवी करता है तो बिना विस्तार में जाए उसका मंतव्य समझ जाना चाहिए। सीमा पर पाकिस्तान की फौज और आतंकवादी, देश के भीतर माओवादी। उसका प्रहार अंदर और बाहर दोनों की ओर से है। वह दोनों को पाल रहा है।
चीन में एक बाबा हुए, नाम था सुन त्जू ने बहुत पहले वहां के शासकों को मंत्र दिया था- युद्ध के बगैर ही शत्रु को हराना ही सबसे उत्तम कला है, यह कला आर्थिक ताकत से सधती है। चीन ने इस मंत्र को ताबीज में मढ़ाकर रख लिया है। वह सोने के रथ पर सवार होकर दुनिया का बाजार लूटने निकल चुका है। सबसे ज्यादा हम उसकी चपेट में हैं।
चीन लगभग 80 अरब डालर का व्यापार भारत से करता है, उसके एवज में चीन से हमारा कारोबार महज 18 अरब डालर का है। वह हमसे बहुत आगे है।
इलेक्ट्रॉनिक, कम्युनिकेशन के मामले में उसका कब्जा है। हर दस ब्रांड के मोबाइल्स में नौ ब्रांड उसके हैं। वह घर में घुसा है स्वाद में घुसा है, हमारी आदतों में शामिल हो रहा है। इसलिए वह दंभ के साथ कहता है भारतीय भले ही कुछ बकें, हमारे बगैर रह नहीं सकते। 
बहिष्कार एक सांकेतिक तरीका हो सकता है। दीर्घकालिक तरीका तो परिष्कार है। हम अपने कुटीर उद्योगों का परिष्कार करके ही उसके मुकाबले खड़े हो सकते हैं, अपने उपभोक्ताओं को चीनी विकल्प उपलब्ध कराके।
एक बड़ा सवाल यह भी कि हम चीन पर व्यापारिक प्रतिबंध क्यों नहीं लगा सकते? दुनिया की परवाह किए बगैर जब हम परमाणु विस्फोट कर सकते हैं तो डब्लूटीओ की परवाह क्यों करते हैं।  चीन को दुश्मन देश घोषित कर उससे सभी रिश्ते तत्काल तोड़ लेने चाहिए, 62 से लेकर ताजा घटना के सबूतों को सामने रखते हुए। 
चीन के साथ हुई इस घटना के बाद कम्युनिस्ट पार्टी का कोई पक्ष सामने नहीं आया। 62 की जंग में भी सीपीएम वालों की भावना चीन के साथ रही। फिर थियानमन चौक में जब लोकतंत्र समर्थक छात्रों को टैंक से कुचला गया तो इसी सीपीएम ने इसे चीन की सम्प्रभुता के लिए अनिवार्य कार्रवाई बताई।
क्रांति के नाम पर जंगल में जो रक्तपात हो रहा है वह भी चीन के माओ के ही खाते में है। हर मसले पर तत्काल प्रतिक्रिया देने वाले बुद्धिजीवी कामरेड लोग चीन और भारत के विवाद पर कभी प्रतिक्रिया नहीं देते। हाल की घटना में भी उनकी कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं आई। ड्रैगन अजदहा है... चीनियों की काल्पित पराशक्ति का प्रतीक। यह सांप की प्रजाति का है।
हिन्दुस्तान में सांप को विभिन्न संदर्भों में जाना जाता है। पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार सांप शेषनाग भी हैं, जिनके फन पर पृथ्वी धरी है। वासुकी भी हैं और तक्षक भी, जिसने पांडवों के वंशज राजा परीक्षित को डसा था।  सांप, यमुना का वह विषधर कालिया नाग भी है जिसे कृष्ण ने नाथा और उसके फन पर नृत्य किया। 
सांप दुनिया का सबसे अविश्वसनीय प्राणी है। वह पलटकर वार करता हैं। जो सपेरा उसे दूध पिलाता है उसे भी डस लेता है। सांप-सांप को भी खा लेता है। सर्पिणी अपने बच्चों को भी नहीं छोड़ती। 
 अजदहा यानी ड्रैगन इन्हीं सांपों का पुरखा है। ये डै्रगन 62 के पहले हिन्दुस्तान आया, हिन्दी-चीनी भाई-भाई पुचकारते हुए जैसे ही अपनी बांमी पहुंचा- अचानक पलटकर वार किया व हमारी हजारों किलोमीटर भूमि पर तब से फन फैलाए फुफकारता  बैठा है। 
शेर की शुरू से यह कमजोरी रही है कि वह बिना आगे-पीछे की सोचे अपने आगे किसी को नहीं भजता। यहां तक कि अपनी परछाई को भी नहीं। इसलिए सबसे ताकतवर होते हुए भी टुच्चे शिकारियों के फंदे में फंस जाता है।
ड्रैगन को कृष्ण बनकर ही बस में किया जा सकता है, जैसा कि द्वापर में कालिया मर्दन हुआ था। सांप की बांमी में शेर बनकर दहाडऩे से ज्यादा कुछ हासिल होने वाला नहीं।

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