- केसी त्यागी
यूरोप के अधिकांश देशों में पिछले 75 वर्षों से विजय दिवस बडे़ उत्साह और उमंग के साथ मनाया
जाता है। यह विजय दिवस दूसरे विश्व युद्ध मे नाजी जर्मनी की हार के उपलक्ष्य में
मनाया जाता है। हर वर्ष मई माह में हिटलर के जुल्मों से त्रस्त देशों में विभिन्न
कार्यक्रमों, नाजीवाद पर आधारित
फिल्मों, नुक्कड़ नाटकों आदि के जरिये जुल्म-ज्यादातियों के किस्से
प्रचारित किये जाते हैं। कोरोना संकट के कारण इस बार कोई भव्य आयोजन नहीं हो पाया, फिर भी फ्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड आदि में
जुलूस निकाले गये। इसी सिलसिले में 24 जून को एक विशाल कार्यक्रम मास्को में आयोजित हुआ, जिसमें भारतीय सेना ने भी शिकरत की। जैसे रूस और तमाम
यूरोपीय देश नाजी जर्मनी के अत्याचारों को याद करते हैं वैसे ही हम भारतीयों को
आपातकाल के काले दिनों का स्मरण करना चाहिए। 45 साल पहले 25 जून, 1975 को
सारे लोकतांत्रिक अधिकारों को समाप्त कर और आपातकाल की घोषणा कर दमन चक्र चलाया
गया, लेकिन भारत में आज उसके खिलाफ उस प्रकार की बेचैनी वितृष्णा
और रोष दिखाई नहीं पड़ता जैसा यूरोप में हिटलर के नेतृत्व वाले जर्मनी को लेकर
दिखाई पड़ता है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि क्या हम नई पीढ़ी में आपातकाल के
खतरों के प्रति पर्याप्त चेतना पैदा कर रहे हैं।
1971 में आम चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को विशाल
बहुमत मिला। विपक्ष के बडे़ दिग्गज नेता इंदिरा की लहर में पराजित हो गये। इंदिरा
गांधी रायबरेली में समाजवादी नेता राजनारायण को पराजित कर विजयी रहीं। राजनारायण
ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनके निर्वाचन को चुनौती दी। याचिका में भारत सरकार के
अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को चुनाव एजेंट बनाने, स्वामी अवैतानन्द को 50 हजार रूपये घूस देकर उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरूपयोग करने, डीएम-एसपी की मदद लेने, मतदाताओं को शराब, कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने के
आरोप लगाए गये। इस मुकदमे की सुनवाई के बीच देश नित नए घटनाक्रमों का साक्षी बनता
रहा। तब समूची कांगे्रस पार्टी इंदिरा गांधी का पर्याय बन चुकी थी। इसी दौरान
गुजरात के छात्रों ने महंगाई के विरुद्ध नवनिर्माण आंदोलन जन्म दिया।
गुजरात के छात्र बढ़ी फीस और राज्य में फैले भ्रष्टाचार को लेकर लामबंद हो
गए। विरोध प्रदर्शन और सभाओं के बड़े आयोजनों ने सरकार के अस्तित्व को
ही चुनौती दे डाली। प्रशासन का कामकाज लगभग ठप हो गया। लगभग संन्यास ले चुके कांग्रेसी
दिग्गज मोरारजी देसाई की सक्रियता ने आंदोलन में नई जान फूंकी। समूचा विपक्ष
गुजरात सरकार की बर्खास्तगी पर अड़ गया। नाजुक स्थिति देखते हुए
गुजरात विधानसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। इसने समूचे
विपक्ष को लामबंद कर दिया और जनता में भी बदलाव की आकांक्षा को
जन्म दिया। देशभर में जन आंदोलन की बाढ़ सी आ गई।
अप्रैल 1974 में बिहार के छात्रों ने अब्दुल गफूर सरकार के
विरुद्ध छात्र युवा संघर्ष समिति बनाकर आंदोलन तेज कर दिया। नौजवानों के आंदोलन
को नई दिशा तब मिली जब जयप्रकाश नारायण ने भी उसे समर्थन दे
दिया। बदले माहौल में मजदूर नेता जॉर्ज फर्नाडिस ने 8 मई, 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल की घोषणा
कर दी। सरकार को हड़ताली आंदोलनकारियों से निपटने के लिए सेना तक की मदद लेनी पड़ी।
बिहार विधानसभा को भी भंग करने की मांग जोर पकड़ने लगी।
विधायक निवास से निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों का निकलना असंभव हो गया। देश भर में
जेपी का नाम गूंजने लगा। समूचा विपक्ष उनके पीछे लामबंद
हो गया।
12 जून, 1975 को गुजरात
चुनावों के नतीजे विपक्ष के पक्ष में आ रहे थे और कांग्रेस पार्टी पिछड़ रही थी, लेकिन सबसे बड़ा
समाचार इलाहाबाद से यह आया कि जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनाव
में भ्रष्टाचार अपनाने का दोषी मान कर उनके चुनाव को अवैध
घोषित करने के साथ ही उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित कर दिया
है। इसके बाद इंदिरा ने हिटलर के रास्ते जाने का फैसला कर
डाला। दिल्ली में पड़ोसी राज्यों से भीड़ जुटाई जाने लगी और इंदिरा नहीं तो देश नहीं जैसे
नारे सुनाई देने लगे। जेपी के नेतृत्व में समूचे विपक्ष ने
श्रीमती गांधी से इस्तीफे की मांग कर देशव्यापी आंदोलन की
रूप रेखा तैयार की। 25 जून को रामलीला मैदान में
रैली की घोषणा की गई है जिसमें सभी दलों के प्रमुख नेताओं को आमंत्रित को किया गया।
बगैर साधनों के भी रामलीला मैदान में जन सैलाब उमड़ पड़ा।
जनसंघ नेता मदनलाल खुराना ने सभा का संचालन किया। मुझे भी मंच साझा करने का अवसर
प्राप्त हुआ। जेपी ने अपने ओजस्वी भाषण में सिविल नाफरमानी
की घोषणा कर डाली। 25 जून की रात ही
श्रीमती गांधी ने आंतरिक सुरक्षा के खतरों का हवाला देकर
आपातकाल की घोषणा कर दी। जेपी, मोरारजी भाई, चौ. चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, पीलू मोदी, बीजू पटनायक आदि को
गिरफ्तार कर लिया गया। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली गिरफ्तारी चंद्रशेखर की थी जो कांग्रेस
में रहते हुए श्रीमती
गांधी और जेपी में संवाद के हिमायती थे। लोकतंत्र समाप्त हो गया और जेल के
भीतर-बाहर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ अमानवीय व्यवहार होने
लगा। इस दमन चक्र से मुक्ति तब मिली जब 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार
हुई, लेकिन 25 जून, 1975 का स्मरण इसलिए किया जाना
चाहिए ताकि देश तानाशाही
प्रवृत्तियों को लेकर सावधान रहे और आपातकाल की पुनरावृत्ति न
हो सके।
(आपातकाल में जेल
जा चुके लेखक जेडीयू के वरिष्ठ नेता हैं)
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