- आशुतोष भटनागर
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस पर विशेष
23 जून को डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी का
बलिदान दिवस है। किसी ने सोचा भी नहीं था कि स्वतंत्र भारत में भी देश की एकता और
अखण्डता के लिये बलिदान देना होगा। लेकिन ऐसा हुआ। डॉ. मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर की
एकात्मता के लिये सर्वोच्च बलिदान दिया।
कोई भी बलिदान तभी सार्थक होता है जब वह
उस उद्देश्य को पूरा करने में समर्थ होता है जिसके लिये वह बलिदान दिया गया। डॉ.
मुखर्जी का बलिदान जम्मू कश्मीर राज्य में, और इसके निमित्त से पूरे देश में “एक प्रधान, एक विधान और एक
निशान” को स्थापित करने के संकल्प के साथ किया गया था। उनकी
मृत्यु के कुछ ही समय बाद राज्य से सदरे रियासत और वजीरे आजम के पदनाम हटा कर
क्रमशः राज्यपाल और मुख्यमंत्री के पदनाम प्रस्थापित कर दिये गये। इस प्रकार एक
प्रधान की बात लागू हो गयी। किन्तु राज्य का अलग संविधान और अलग राजकीय ध्वज अलगाव
को बढ़ाता ही गया। इसके कारण जो प्रश्न खड़े हुए वे इस देश के मानस में लगभग सात
दशकों तक गूँजते रहे, अपना उत्तर खोजते रहे।
इन प्रश्नों को उत्तर मिला 5 अगस्त 2019
को जब केन्द्र की सरकार ने अनुच्छेद 370 में संशोधन कर भारत का संविधान जम्मू
कश्मीर राज्य में पूरी तरह लागू कर दिया। अब वहाँ न अलग संविधान है और न अलग झंडा।
पश्चिमी पाक और पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर के विस्थापितों, गोरखों, वाल्मीकियों,
राज्य की महिलाओं को तीन पीढ़ियों तक अन्याय सहने के बाद अब वे अधिकार हासिल हुए
हैं जिन्हें भारत का संविधान अपने प्रत्येक नागरिक के लिये सुनिश्चित करता है।
डॉ. मुखर्जी का पं. नेहरू से व्यक्तिगत
मतभेद नहीं था। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में सबके लिये समान अवसर हों,
तुष्टिकरण किसी का न हो और संविधान के अनुरूप ही शासन व्यवस्था चले। जिस साम्प्रदायिक
विभेद के चलते भारत का विभाजन हुआ, उसे स्वतंत्र भारत में एक बार फिर पनपने देने
का परिणाम अपने लिये ही आत्मघाती होगा।
कश्मीर में शेख को सत्ता सौंपे जाने के
बाद जम्मू में साम्प्रदायिक आधार पर दमनचक्र चला जिसके विरोध में प्रजा परिषद ने
आंदोलन खड़ा किया था। प्रजापरिषद की मांगें भी राष्ट्रवादी और एकात्मता को मजबूत
करने वाली थीँ। डॉ. मुखर्जी इस समस्या के समाधान के लिये ही प्रयासरत थे। दिसम्बर
1952 में प्रजा परिषद के अध्यक्ष पं प्रेमनाथ डोगरा को कानपुर में सम्पन्न जनसंघ
के पहले अधिवेशन में जम्मू कश्मीर की स्थिति प्रतिनिधियों के समक्ष रखने के लिये
आमंत्रित किया गया। अधिवेशन में प्रजा परिषद के आन्दोलन को पूर्ण समर्थन देने तथा
इसे देशव्यापी बनाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके लिये अन्य
राष्ट्रवादी संगठनों से सहायता प्राप्त करने की भी बात कही गयी।
संसद के अंदर और बाहर डॉ मुखर्जी ने जम्मू
कश्मीर का मामला जोरदार ढ़ंग से उठाया। इस संबंध में उनका पं नेहरू और शेख
अब्दुल्ला से लंबा पत्र व्यवहार भी चला। 9 जनवरी 1953 को उन्होंने पं. नेहरू को
पहला पत्र लिखा जिसमें ‘प्रजा परिषद की न्यायोचित माँगों को न ठुकराने’ की
अपील की। इस अपील का कोई स्पष्ट असर नहीं दिखाई पड़ा फिर भी उन्होंने अपने प्रयास
जारी रखे और संवाद बनाये रखने का प्रयास किया। सदन के भीतर भी उन्होंने पं. नेहरू
से प्रजा परिषद नेताओं से वार्ता का आग्रह किया जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि “यदि मैं शेख अब्दुल्ला के स्थान पर होता तो इससे भी कड़ी कार्रवाई करता”।
5 मार्च को दिल्ली स्टेशन के सामने उमड़े
जनसूह को संबोधित करते हुए श्री मुखर्जी ने कहा –“ अब हमारे सामने दो रास्ते शेष बचे हैं। पहला रास्ता इस अन्याय के समक्ष
सिर झुका कर बैठ जाने का रास्ता है जिसका अर्थ है शेख अब्दुल्ला की दुर्नीति का
विषफल प्रकट होने देना। दूसरा रास्ता है इस अन्याय का परिमार्जन करने के लिये
शुद्ध देशभक्ति से प्रेरित होकर सर्वस्व त्याग करने की तैयारी करना”। अत्यंत गंभीर एवं दृढ़ स्वर में डॉ मुखर्जी ने घोषणा की –
“हमने दूसरा मार्ग स्वीकार किया है”।
पत्रकारों के अतिरिक्त प्रधानमंत्री नेहरू
को भी उन्होंने अपना कार्यक्रम सूचित करते हुए तार भेजा। उन्होंने लिखा "आपकी जानकारी के
लिये मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैंने जानबूझ कर परमिट प्राप्त करने के लिये
आवेदन नहीं किया। चूंकि आपकी सरकार ने योजनापूर्वक ढ़ंग से कई लोगों को जो आपकी
कश्मीर नीति से मतभिन्नता रखते हैं, परमिट देने से इनकार कर दिया है। नैतिक,
वैधानिक तथा राजनैतिक, तीनों दृष्टियों से मेरा जम्मू जाना न्यायपूर्ण है।
उन्होंने यह भी कहा कि मैं उस भारतीय संसद का सदस्य हूँ जिसमें कश्मीर सम्मिलित है
और संसद के प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य है कि देश के किसी भी भाग में किसी भी
स्थिति का अध्ययन करने वह स्वयं जाये”।
शेख अब्दुल्ला को भेजे गये एक अन्य तार
में उन्होंने लिखा कि “मैं ऐसी स्थिति का निर्माण करने के लिये उत्सुक हूं जिसके द्वारा परस्पर
सदभावना और शांतिपूर्ण समझौते पर पहुंचा जा सके। मैं आपसे मिलने की संभावना का भी
स्वागत करता हूं”। इसके जवाब में उन्हें शेख अब्दुल्ला का
तार मिला जिसमें उन्हें जम्मू न आने के लिये कहा गया था।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के
अनुसार, जो उस समय पत्रकार के रूप में उनके साथ थे, गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर
ने स्वयं आकर कहा था कि हमारी तरफ से आपको कोई रुकावट नहीं होगी। किन्तु जैसे ही
वे माधोपुर के पुल पर आधी दूरी तक पहुंचे, जम्मू कश्मीर की पुलिस ने उन्हें
गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त और श्री टेकचन्द भी गिरफ्तार कर लिये
गये।
डॉ. मुखर्जी के सलाहकार बैरिस्टर उमाशंकर
त्रिवेदी को शेख सरकार ने डॉ. मुखर्जी से मिलने की अनुमति नहीं दी। अंततः उच्च
न्यायालय के निर्देश पर उनकी भेंट हो सकी। जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने बैरिस्टर
त्रिवेदी की याचिका पर 23 जून को सुनवाई की तारीख दी थी। सभी को उम्मीद थी कि इस
दिन वे मुक्त हो जायेंगे। किन्तु 22 जून की रात्रि को ही रहस्यमय परिस्थिति में
उनकी मृत्यु हो गयी। उनका शव कोलकाता भेज दिया गया।
भारतीय जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री पं.
दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा – “जब सत्याग्रही कष्ट सहने के लिये अड़ जाता है तो कुछ समय तक अन्याय बढ़ते
हैं। प्रतिष्ठा और पार्टी-बाजी के मद में अन्धे सत्ताधारी उपेक्षा करते हैं जिसके
परिणामस्वरूप बलिदान होते हैं। किन्तु इसके साथ इन अस्वाभाविक कृत्यों की एक सीमा
रहती है जिसके बाद वह क्रमशः क्षीण होने लगते हैं और शुद्ध भावनाएं हिलोरें मारने
लगती हैं। बस, इसी समय सत्याग्रह सफल होता है”।
सत्याग्रह सफल हुआ। किन्तु इसमें राष्ट्रीय एकात्मता को सर्वप्रथम
मानने वाली तीन पीढ़ियों को अपनी आहुति देनी पड़ी। “एक प्रधान,
एक विधान और एक निशान” का संकल्प
तो पूरा हुआ है किन्तु इसके अगले चरण की घोषणा करने वाला उद्घोष – “जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है,
जो कश्मीर हमारा है, वह सारे का सारा है” आज भी अधूरा है। भारत की सीमाओं को अक्षुण्ण करने तक यह अभियान रुकेगा
नहीं, सत्याग्रह की सफलता के पश्चात डॉ. मुखर्जी के पहले
बलिदान दिवस का यह संकल्प है जिसकी पुष्टि 22 फरवरी 1994 का भारतीय संसद का
सर्वसम्मत संकल्प करता है। इसके अनुसार “पाकिस्तान
के साथ यदि कुछ शेष है तो वह उन भारतीय क्षेत्रों को वापस लेने का है जिन पर उसने
अवैध कब्जा कर रखा है, और ऐसा करने की क्षमता और
इच्छाशक्ति भारत में है”।
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