महाराष्ट्र के पालघर जिले में दो हिन्दू संन्यासी तथा उनके चालक की भीड़ द्वारा हत्या की गई. इस घटना को लेकर पूरे देश मे असंतोष था. दिल दहला देने वाला यह हादसा केवल गलत फहमी का नतीजा नहीं. तथ्यों का विचार करें तो साफतौर पर साजिश नजर आती है. कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना गठबंधन सरकार ने घटना को दबाने के लिए कई प्रयास किए. घटना के पश्चात सरकार की ओर से दिए गए बयान और भूमिका में रही विसंगतियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं तथा वामपंथ प्रभावित उस क्षेत्र में चल रहे कार्यक्रमों के मद्देनजर सीबीआई अथवा एनआईए जैसी केंद्रीय एजेन्सी ही घटना के पीछे के षड्यंत्रों के पर्दा हटा सकती है. विवेक विचार मंच (मुंबई) द्वारा जस्टिस अंबादास जोशी की अध्यक्षता में गठित जांच समिति ने भी मंगलवार को अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए घटना की केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई या एनआईए) से जांच करवाने की मांग की. अपनी रिपोर्ट में वर्तमान चल रही जांच को लेकर कुछ सवाल भी उठाए हैं.
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे द्वारा दिए गए बयान
हादसे
के करीब चार दिन बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ठाकरे जी ने अधिकृत वक्तव्य दिया
था. उनका बयान निष्कर्ष समान था. जब कि इस दुर्घटना को लेकर प्राथमिक पूछताछ भी
शुरू नहीं हुई थी. मुख्यमंत्री ने पूरे मामले पर निर्णयात्मक बयान दिए.
मुख्यमंत्री द्वारा दिया बयान कि – ‘पूरा
मामला गलतफहमी के कारण हुआ हैं’, ऐसे
सूचक एवं निर्णायक थे. अपराधिक मामले में जाँच होने से पहले राज्य प्रशासन के
प्रमुख पद पर बैठें व्यक्ति द्वारा ऐसा बयान देना न्यायसंगत नहीं. इसलिए राज्य
प्रशासन के अंतर्गत काम करने वाली किसी भी जाँच प्रणाली द्वारा इस मामले की सही
जाँच सम्भव नहीं. स्पष्ट है कि स्टेट सीआईडी द्वारा की जा रही जांच न्यायतत्त्वों
की आवश्यकता पूर्ण करने में असमर्थ है.
कौन सही ; मुख्यमंत्री
या पुलिस ?
मुख्यमंत्री
का अधिकृत बयान आने से पहले घटना को लेकर पुलिस का वक्तव्य प्रकाशित हुआ था.
मुख्यमंत्री ने पालघर मॉब लिंचिंग के लिए अफवाहों को कारण बताया. जबकि, घटना की जानकारी देने वाली पालघर पुलिस अधीक्षक द्वारा
जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, ‘ साधु
और उनके चालक की हत्या ४००-५०० की भीड़ को इकट्ठा कर एक साजिश के तहत हुई हैं.’ एक ओर पुलिस प्रसार माध्यमों के लिए जारी किए प्रेस
विज्ञप्ति में पूरे मामलें को साजिश बता रही हैं तो दूसरी ओर महाराष्ट्र के
मुख्यमंत्री इसे गलतफहमी का परिणाम बता रहे हैं. यह विसंगति घटना की जाँच को लेकर
राजनीतिक हस्तक्षेप का प्रमाण है.
वह ‘दादा’ कौन?
साधुओं की हत्या के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे.
एक वीडिओ में भीड़ के लोग, “दादा
आलाsss दादा आला sss(दादा
आ गए)”, ऐसी आवाज लगाते हुए दिखाई देते है. ‘दै. मुम्बई तरुण भारत’ के
साथ स्थानीय सरपंच का साक्षात्कार कुछ तथ्य उजागर करता है. सरपंच चित्रा चौधरी जी
मामले की प्रत्यक्षदर्शियों में से एक हैं. चित्रा चौधरी बताती हैं कि, “यह ‘दादा’ नामक संबोधन एनसीपी के स्थानीय नेता ‘काशीनाथ चौधरी’ के
लिए था. काशीनाथ चौधरी जिला परिषद के सदस्य हैं. हत्या कर रही भीड़ ‘दादा आलाsss दादा
आला(दादा आ गए)’ ऐसा
चिल्लाते हुए उत्साहित होते नजर आती है. काशीनाथ चौधरी एनसीपी के नेता हैं, लेकिन भीड़ को रोकने का कोई भी प्रयास वे नहीं करते. एसा
क्यों?
भीड़ का दादा और मंत्री महोदय के मित्र?
काशीनाथ
चौधरी की भूमिका इतनी विवादास्पद होने के बावजूद भी राज्य सरकार के गृहमंत्री
द्वारा उन्हें वीआईपी ट्रीटमेंट मिल रही है. पालघर मॉब लिंचिंग के 20 दिनों पश्चात गृहमंत्री अनिल देशमुख ने मौका-ए-वारदात का
दौरा किया. पत्रकारों को दूर रखा गया था. किन्तु काशीनाथ चौधरी गृहमंत्री के साथ
घूमते नजर आए. पूरे हादसे में विवादास्पद भूमिका में रहे व्यक्ति को गृहमंत्री ने
अपने अधिकृत प्रवास के दौरान साथ मे रखने का दृश्य कई प्रश्न खड़े करता है. अनिल
देशमुख राज्य के गृहमंत्री हैं और राज्य के अंतर्गत काम करने वाली सभी जांच
प्रणालियां देशमुख के अंतर्गत हैं.
अंतरराज्यीय आपराधिक मामला
जिस
गाँव की सीमा पर साधुओं की हत्या हुई, वहाँ
आसपास के क्षेत्र की जनसंख्या में विरलता दिखती है. गढ़चिंचले यह गाँव एक ग्रुप
ग्राम पंचायत से हैं. बीस-पच्चीस घरों के छोटे-छोटे समूह को यहाँ ‘पाड़ा’ कहा
जाता है. गढ़चिंचले गाँव के आसपास ऐसे ‘पाड़े’ हैं. फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि पाँच सौ की संख्या
में भीड़ कैसे इकट्ठा हुई? क्या
भीड़ जमा करने के किए कुछ प्रबंध किया गया था? क्योंकि
साधुओं को भीड़ से बचाकर फॉरेस्ट की चौकी में रखना और प्रत्यक्ष हत्या के हादसे में
करीब 2-3 घंटे का अंतर है. गढ़चिंचले गाँव की सीमा से दादरा और
नगर हवेली केंद्र शासित प्रदेश की सीमा शुरू होती है. स्थानीय लोगों के अनुसार कुछ
लोग केंद्र शासित प्रदेश से भी आए थे. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के अधिकृत बयान ने
भी इस बात की पुष्टि की है.
16 अप्रैल, 2020 की
रात ११.३० बजे दादरा और नगर हवेली के रास्ते से पुलिस फोर्स मौका-ए-वारदात पर
पहुँचने के लिए निकली थी, लेकिन
दो सौ लोगों की भीड़ ने चिसड़े गाँव के समीप पुलिस गाड़ी को घेर लिया तथा आगे बढ़ने
से रोक दिया. लोगों ने सुबह तीन बजे तक पुलिस फोर्स को रोके रखा. इस बारे में एक
स्वतंत्र शिकायत एफआईआर नंबर 906/2020 खानवेल
पुलिस थाने में दर्ज है. षड्यंत्र साफ दिखाई देता है. स्वाभाविक ही यह घटना एक
अंतरराज्यीय अपराध का मामला बन जाता है. अंतरराज्यीय आपराधिक मामले सीबीआई या
एनआईए जैसी स्वतंत्र संस्था से जाँच कराने की परंपरा रही है.
वामपंथी हिंसा के पदचिन्ह….
“यहाँ भारत का संविधान लागू नहीं होता”, ऐसे बोर्ड लगाकर शासन व्यवस्था नकारने की पद्धति नक्सल
प्रभावित क्षेत्रों में दिखाई देती है. कुछ वर्ष पूर्व पालघर जिले के कुछ हिस्सों
में भी इस प्रकार के बोर्ड लगाए गए थे. कुछ दक्ष नागरिकों के कारण पुलिस के
हस्तक्षेप से यह बोर्ड हटाए गए. लेकिन हिन्दू धर्म के प्रति, धर्माचार्यों के प्रति शत्रुत्व की भावना को आग देने का
काम वामपंथी आजतक करते आए है. जाहिर है कि इस क्षेत्र में ऐसे कई तत्व सक्रिय होने
की संभावना को टाल नही सकते. केंद्रीय जाँच एजेंसी जांच करवाने का यह भी एक कारण
है.
महाराष्ट्र
सरकार का संदेहजनक रवैय्या ऐसे कई उदाहरणों से स्पष्ट होता हैं.
कांग्रेस-एनसीपी-सेना की गठबंधन सरकार इस मामले की ओर उदासीन नजर आती है. यह तथ्य
और तर्क एक बात स्पष्ट कर रहे हैं कि, महाराष्ट्र
सरकार ने इस जाँच प्रक्रिया पर से अपना नैतिक अधिकार को दिया है. संविधानिक और
न्यायिक परिपूर्णता के लिए भी एनआईए अथवा सीबीआई जैसी स्वतंत्र जाँच संस्थाओं की
आवश्यकता टाल नहीं सकते.
श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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