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Sunday, January 31, 2021

ग्राम प्रधानद्वय नसीम और शमसुद्दीन ने श्रीराम मन्दिर के लिए समर्पित किया निधि, मन्दिर निर्माण के लिए सम्प्रदाय और दल से आगे बढ़कर मिल रहा जनसहयोग

जगदीशपुर (अमेठी) / अयोध्या में चल रहे श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण में अपेक्षा से अधिक लोगों का जनसहयोग मिल रहा है। इसके साथ ही श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निधि समर्पण अभियान के माध्यम से प्रतिदिन समाज को सामाजिक समरसता का एक नया संदेश मिल रहा है। "सबके हैं राम" की भावना से इस अभियान को समाज का हर वर्ग सफल बनाने में जुटा हुआ है। 

देशभर में लोग सम्प्रदायवाद और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर प्रभु श्रीराम को निधि समर्पित कर रहे हैं। भगवान श्रीराम के प्रति आस्था शनिवार को जगदीशपुर में देखते ही बनी। जिला प्रचार प्रमुख, जगदीशपुर ने बताया कि शनिवार को जगदीशपुर के पालपुर और नियावां के ग्राम प्रधानद्वय नसीम और शमसुद्दीन ने भी निधि समर्पित कर न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र को प्रेरित करने का कार्य किया है, बल्कि सामाजिक समरसता का एक अनूठा संदेश दिया है। इसी क्रम में राजनीतिक विचारधारा से आगे बढ़ते हुए क्षेत्र के बिहारी लाल यादव ने भी अपना निधि समर्पण किया। शनिवार को जगदीशपुर समेत विभिन्न ग्रामीण क्षेत्र से डॉ. आर एल यादव, डॉ. संजय, पूनम यज्ञसैनी, मुन्ना त्रिवेदी, गुड्डू इत्यादि श्रीरामदूतों ने देखते ही देखते 15 लाख से अधिक की निधि का समर्पण कर अयोध्या में श्रीराम के भव्य मन्दिर निर्माण के लिए प्रसन्नता व्यक्त की।

Saturday, January 30, 2021

श्री राम के प्रति उनका भाव जुड़े यह महत्वपूर्ण है……

कच्छ.. रघु जुसब कोली, बालजी जुसब कोली, कल्पेश इब्राहीम कोली, आयशा इब्राहीम कोलीये नाम पढ़कर आपको इनके बारे में जानने की जिज्ञासा होगी, कि ये कौन हैं, क्या विशेषता है? तो आइये इनके बारे में आपको इनसे जुड़ी प्रेरक घटना के बारे में बताते हैं….

20 जनवरी, 2021 भुज विश्वविद्यालय के समीप हरीपर गांव में पूर्व नियोजित कार्यक्रम अनुसार स्वयंसेवक गांव में घर-घर निधि समर्पण अभियान के निमित्त संपर्क कर रहे थे. शाम होते ही अंधेरा फैलने लगा गांव के अन्य रामसेवकों ने कहा कि गांव के सभी घरों स संपर्क हो चुका है. तभी गांव के छोर पर एक मस्जिद के बगल में दो कुटिया नजर आईं, मैंने कहा चलो चलते हैं. मेरे साथ आए स्थानीय युवक ने मुझे कहा, वहां जाना उचित नहीं है, मैंने कहा चलो देखें क्या है?

उसके बाद जो हुआ वो रोमांचित करने वाला है…..

हमारे जय श्री राम कहने के साथ ही एक वृद्ध माता जी ने जय श्री राम बोलकर उत्तर दिया और बोली कि जैसे माँ शबरी राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी प्रकार मैं भी रामभक्तों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी. फिर हमने श्री राम मंदिर निर्माण के विषय में चर्चा की….तब उनकी प्रसन्नता के जो भाव थे, उसे वर्णित करने में निःसंदेह शब्द पूरक नहीं होंगे

उन्होंने कहा कि हमारे घर तक मंदिर के लिए कोई समर्पण लेने आया हो, उनमें आप प्रथम हैं. हमे आनंद इस बात का है कि आप ने हमें अपना समझा है. जैसे भगवान राम ने शबरी के बेर खाए तो उससे माता शबरी को जो खुशी मिली, उतनी ही खुषी आज मुझे हो रही है. अनायास ही मैं उनसे पूछ बैठा, आप हिन्दू धर्म के विषय में इतना जानते हैं तो फिर ये इस्लामिक नाम क्यों? तो उनका उत्तर था हमारे पूर्वजों ने गलती की है, उसका हमें खेद है. उसके बाद दूसरी बातें हुई जो रोमांचित करने वाली थीं, अंत में मैंने निधि समर्पण की चर्चा की.

तो उनके घर में जितने भी सदस्य थे, उन सभी के नाम पर 200-200 रुपये समर्पण राशि देने की बात कही. मैंने कहा कि घर एक है तो एक साथ ही रसीद काट देते हैं तो उनका उत्तर रोमांचित करने वाला था. उन्होंने कहा कि हम तो आप के साथ आज तक नहीं जुड़ सके, लेकिन ये छोटी उम्र के बच्चे हिन्दू धर्म के साथ जुड़े रहें और श्री राम के प्रति उनका भाव जुड़े यह महत्वपूर्ण है.

वृद्ध आयशा बहन के शब्दों को सुनकर हम सभी स्वयंसेवक रोमांचित हो गए और अन्त में दोबारा मिलने के आश्वासन के साथ जय श्री राम कहकर विदा ली.

हीरपर शाखा, कार्यकर्त्ता, भुज (कच्छ)

- विश्व संवाद केन्द्र, भारत

Friday, January 29, 2021

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती – न्यायालय

नई दिल्ली. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती. किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता उसके कर्तव्यों और अन्य नागरिकों के प्रति उसके दायित्वों के साथ संतुलित होनी ही चाहिए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों के लिए न्यायालयों की टिप्पणियां बड़ा संदेश हैं. जो केवल एक धर्म, समूह, व्यक्ति के खिलाफ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सही मानते हैं, दूसरा वर्ग स्वतंत्रता का उपयोग करता है तो उन्हें समस्या होने लगती है.

हाल ही में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के दो अलग-अलग मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणी की. दोनों ही मामलों में न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं (आरोपियों) को कोई भी राहत देने से इंकार कर दिया.

तांडववेब सीरीज को लेकर चल रहे विवाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देशक अली अब्बास और दूसरे कलाकारों को अंतरिम प्रॉटेक्शन देने से इनकार कर दिया. न्यायालय ने निर्माताओं को अग्रिम जमानत देने और एफआईआर को रद्द करने से इनकार किया. किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती. ऐसी स्क्रिप्ट नहीं लिखनी चाहिए, जिससे भावनाएं आहत हों.

सुनवाई के दौरान अभिनेता जीशान अयूब ने  कहा,  मैं एक अभिनेता हूं. मुझसे भूमिका निभाने के लिए संपर्क हुआ था. इस पर पीठ ने कहा, ‘आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है. आप ऐसा किरदार नहीं निभा सकते हैं जो एक समुदाय की भावनाओं को आहत करता हो.

वहीं, दूसरे मामले में फारुकी और यादव की जमानत याचिकाओं की सुनवाई करते हुए मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ के न्यायमूर्ति रोहित आर्य ने अपने आदेश में कहा कि देश में अलग-अलग तबकों के बीच सौहार्द्र और भाईचारा बढ़ाने के प्रयास किया जाना चाहिए. एकल पीठ ने शीर्ष न्यायालय के एक पुराने निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता उसके कर्तव्यों और अन्य नागरिकों के प्रति उसके दायित्वों के साथ संतुलित होनी ही चाहिए.

दोनों आरोपियों की जमनत याचिकाएं खारिज करते हुए कहा, ‘मुकदमे के गुण-दोषों को लेकर संबंधित पक्षों की दलीलों पर अदालत कोई भी टिप्पणी करने से बच रही है. लेकिन मामले में जब्त सामग्री, गवाहों के बयानों और (पुलिस की) जांच जारी होने के चलते फिलहाल जमानत याचिकाओं को मंजूर करने का कोई मामला नहीं बनता है.न्यायालय ने कहा, ‘मामले में अब तक जब्त सबूत और सामग्री पहली नजर में इशारा करती है कि (विवादास्पद) स्टैंड-अप कॉमेडी शो की आड़ में वाणिज्यिक तौर पर आयोजित सार्वजनिक कार्यक्रम में आरोपी द्वारा भारत के एक वर्ग के नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझकर आहत करने के इरादे से अपमानजनक बातें कही गई थीं.

फारूकी, यादव और तीन अन्य आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 295-ए (किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के इरादे से जान-बूझकर किए गए विद्वेषपूर्ण कार्य) और अन्य सम्बद्ध प्रावधानों के तहत इंदौर पुलिस ने एक जनवरी की रात को गिरफ्तार किया था. शहर के एक कैफे में एक जनवरी की शाम आयोजित विवादास्पद हास्य कार्यक्रम के खिलाफ शिकायत पर दर्ज प्राथमिकी को लेकर यह कदम उठाया गया था. मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय से पहले इंदौर जिले की दो निचली अदालतें भी फारूकी और यादव की जमानत अर्जियां खारिज कर चुकी हैं.

उच्च न्यायालय के आदेश में बयानों के जिन अंशों का हवाला दिया गया है, उनमें भगवान राम और माता सीता के साथ गोधरा कांड को लेकर फारूकी के कथित तौर पर आपत्तिजनक चुटकुलों का जिक्र किया गया है. 

श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत 

संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया)

 जन्म दिवस / 29 जनवरी1922

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी, 1922 को ग्राम बनैल (जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न एवं शिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता कुँवर बलबीर सिंह  अंग्रेज शासन में पहली बार बने भारतीय मुख्य अभियन्ता थे। इससे पूर्व इस पद पर सदा अंग्रेज ही नियुक्त होते थे। राजेन्द्र सिंह को घर में सब प्यार से रज्जू कहते थे। आगे चलकर उनका यही नाम सर्वत्र लोकप्रिय हुआ।

रज्जू भैया बचपन से ही बहुत मेधावी थे। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें। इसीलिए उन्हें पढ़ने के लिए प्रयाग भेजा गया; पर रज्जू भैया को अंग्रेजों की गुलामी पसन्द नहीं थी। उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम-एस.सी. उत्तीर्ण की और फिर वहीं भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गये।

उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा. सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था।

प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नामविषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे।

प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए अब पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे।

रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे। 1966 में उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरा समय संघ को ही देने लगे।

अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी आ गया। वे एक अच्छे गायक भी थे। संघ शिक्षा वर्ग की गीत कक्षाओं में आकर गीत सीखने और सिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। सरल उदाहरणों से परिपूर्ण उनके बौद्धिक ऐसे होते थे, मानो कोई अध्यापक कक्षा ले रहा हो।

उनकी योग्यता के कारण उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया। आपातकाल के समय भूमिगत संघर्ष को चलाये रखने में रज्जू भैया की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने प्रोफेसर गौरव कुमार के छद्म नाम से देश भर में प्रवास किया। जेल में जाकर विपक्षी नेताओं से भेंट की और उन्हें एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। इसी से इन्दिरा गांधी की तानाशाही का अन्त हुआ।

1977 में रज्जू भैया सह सरकार्यवाह, 1978 में सरकार्यवाह और 1994 में सरसंघचालक बने। उन्होंने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों को कार्य विस्तार की प्रेरणा दी। बीमारी के कारण उन्होंने 2000 ई0 में श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दे दिया। इसके बाद भी वे सभी कार्यक्रमों में जाते रहे।

अन्तिम समय तक सक्रिय रहते हुए 14 जुलाई, 2003 को कौशिक आश्रम, पुणे में रज्जू भैया का देहान्त हो गया।

श्रोत- मा. क्षेत्र प्रचार प्रमुख के फेसबुक वाल से

भारतीय क्रान्तिकारी आंदोलन में विवेकानंद विचार

- राजेंद्र कुमार चड्ढा

‘‘भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे.’’ स्वामी विवेकानन्द के इन शब्दों से भारत, भारतीयता और भारतवासी के प्रति उनके प्रेम, समर्पण और भावनात्मक संबंध स्पष्ट परिलक्षित होते हैं. स्वामी विवेकानंद को युवा सोच का संन्यासी माना जाता है. विवेकानंद केवल आध्यात्मिक पुरूष नहीं थे वरन् वे विचारों और कार्यों से एक क्रांतिकारी संत थे, जिन्होंने अपने देश के युवकों का आह्वान किया था उठो, जागो और महान बनो.

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रयास नहीं किए या यहां तक कि उस बारे में कभी बात भी नहीं की. यद्यपि यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी जी ने अन्य व्यक्तियों में संचारित किया था, वही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी. नवजीवन प्रकाशन कलकत्ता से प्रकाशित भूपेन्द्र नाथ दत्त की पुस्तक पेट्रिओट प्रॉफिट स्वामी विवेकानंदमें उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाईन मोक्लियान से स्वामी जी ने कहा कि क्या निवेदिता जानती नहीं है कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया, किन्तु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया. देश भ्रमण के दौरान पूरे देश के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न संभवतः स्वामी जी ने किया होगा, जिसका संकेत उक्त चर्चा में मिलता है.

स्वामी विवेकानंद की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से कोई भागीदारी नहीं थी, पर फिर भी आजादी के आंदोलन के सभी चरणों में उनका व्यापक प्रभाव था. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर विवेकानंद का प्रभाव, फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो के प्रभाव अथवा रूसी और चीनी क्रांतियों पर कार्ल मार्क्स के प्रभाव की तुलना में किसी भी तरह से कमतर नहीं था.

कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन व्यापक राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि के बिना संभव नहीं है. सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना के जागरण में विवेकानंद का सबसे सशक्त प्रभाव था. भगिनी निवेदिता के अनुसार, वह नींव के निर्माण में लगने वाले कार्यकर्ता थे. वास्तव में, जिस तरह रामकृष्ण बिना किसी पुस्तकीय ज्ञान के वेदांत के एक जीवंत प्रतीक थे तो उसी प्रकार विवेकानंद राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक थे. अंग्रेज पहले ही आशंकित हो चुके थे. अल्मोड़ा में पुलिस विवेकानंद की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी. २२ मई को एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, “आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है. निसंदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं. किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्यपि स्वामी जी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं. सरकार अवश्य ही मूर्खता कर रही है या कम से कम तब ऐसा स्पष्ट हो जाएगा, यदि वह उनसे उलझेगी. वह पूरे देश को जगाने वाली मशाल होगी. और मैं इस देश में जीने वाली अब तक कि सबसे निष्ठावान अंग्रेज महिलाउस मशाल से जागने वाली पहली महिला होऊँगी”.

हम स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात विद्रोह कमेटीकी रिपोर्ट में देख सकते हैं. यह कहती है, उसके (स्वामी विवेकानंद के) लेखों और शिक्षाओं ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है. ब्रिटिश सीआईडी जहां भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाया करती थी, वहां उन्हें विवेकानंद जी की पुस्तकें मिलतीं थीं.

प्रसिद्ध देशभक्त-क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त से चर्चा के दौरान हेमचन्द्र घोष ने सन् १९०६ में टिप्पणी की, “मुझे अच्छी तरह याद है कि स्वामी जी ने मुझे बंगाली युवाओं की अस्थियों से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था, जो भारत को स्वतंत्र करा सके”. अपनी प्रेरणादायी रचना, ‘द रोल ऑफ ऑनररू एनेक्डोट ऑफ इंडियन मार्टियर्समें कालीचरण घोष बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामी जी के प्रभाव के बारे में लिखते हैं, “स्वामी जी के सन्देश ने बंगाली युवायों के मनों को ज्वलंत राष्ट्र-भक्ति की भावना से भर दिया और उनमें से कुछ में कठोर राजनैतिक गतिविधि की प्रवृत्ति उत्पन्न की. स्वामी विवेकानंद के देहांत से पूर्व, देश उन संगठनों के महत्व के प्रति जागरुक हो गया था जो बड़े पैमाने पर शारीरिक उन्नति, खेल, तलवारबाजी, कृपाण और लाठी के खेल, समाज-सेवा, राहत कार्य आदि करते थे. सन् १९०२ तक ऐसे संगठन उभर आए थे, जिनमें प्रखर राष्ट्रवाद के साथ ही एक आध्यात्मिक भावनाभी थी, जैसे सतीश मुखर्जी और पी.मित्रा के नेतृत्व में अनुशीलन समिति.

स्वामी विवेकानंद के बौद्विक जगत में तैयार किए विक्षोभ के वातावरण के विस्फोट का आभास उनके देहांत के बाद बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के नेता के रूप में श्री अरविंद के उद्भव के तौर पर सामने आया. भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण के आदर्शों को एक आधारभूत संबल प्रदान किया. सन् 1910 में जब श्री अरविंद को दूसरी बार गिरफ्तार करने की बात की चर्चा थी, उस समय निवेदिता की सलाह थी कि नेता घर से दूर रहते हुए भी घर जितना काम कर सकता हैऔर इस सलाह ने उनके फ्रांसीसी क्षेत्र पांडिचेरी जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया.

हम राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्वामी विवेकानंद के उभरने से पहले की स्थिति पर एक दृष्टि डालें. अंग्रेजी शिक्षा, देसी साहित्य, भारतीय प्रेस, कांग्रेस सहित विभिन्न सुधार आंदोलन और राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ चुके थे और विवेकानंद से पूर्व उनका प्रभाव फैल चुका था. इन सबके बावजूद, एक सर्वव्यापी राष्ट्रीय चेतना का अभाव था. अगर ऐसा नहीं होता तो मद्रास से प्रकाशित होने वाला द हिन्दू सन् 1893 की शुरूआत में प्रमुख समुदाय हिन्दुओं के धर्म के बारे में यह कैसे लिख सकता था कि यह मर चुका है और उसकी क्षमता चुक गई है. पर इसी समाचार पत्र ने एंग्लो इंडियन और मिशनरी अखबारों सहित अन्य प्रकाशनों के साथ एक वर्ष (और भी बाद में) से भी कम समय में लिखा कि वर्तमान समय हिन्दुओं के इतिहास में पुनर्जागरण काल के रूप में वर्णित किया जा सकता है (मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज पत्रिका, मार्च 1897). इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह का नाम दिया गया (मद्रास टाइम्स, 2 मार्च 1895). यह चमत्कार कैसे हुआ ? हमें समकालीन विवरणों से जो एक उत्तर प्राप्त होता है, वह यह कि विवेकानंद ने धर्म संसद में भाग लेते हुए वहां पर भारतीय धर्म और सभ्यता की महिमा का प्रचार किया और अपने देश की प्राचीन विरासत की मान्यता को प्राप्त किया और इस तरह अपने देशवासियों को दीर्घकाल से खोए हुए उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को वापस लौटाया. स्वामी ने आत्मग्लानि में धंसे भारतीय समाज को बाहर निकाला. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म में पैदा हुआ हूँ, जिसने सदियों से दुनिया को राह दिखाई. चेतनाहीन समाज को चैतन्य करना उनका सबसे बड़ा योगदान है.

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का एक तार्किक अथवा सतही अध्ययन, भारत को स्वतंत्र कराने वाले राष्ट्रीय आंदोलन से उनकी भूमिका को कतई भी नहीं जोड़ेगा, जबकि गहराई से देखने पर उनके शिष्य और क्रांतिकारी संत स्वामी विवेकानंद को उस राष्ट्रीय भावना से अलग करना कठिन होगा, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा के नाते कार्य किया. जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना ने स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी कार्य के लिए शक्तिपुंज का कार्य किया. वहीं स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार भारत भर में सैकड़ों- हजारों राष्ट्रीय कार्यों के लिए प्रेरणा सूत्र बन गए. स्वामी विवेकानंद के विचारों तथा शिक्षा ने राष्ट्रीय जीवन व संस्कृति को काफी प्रभावित किया. भारतीय क्रांतिकारियों की अनेक पीढ़ियां 20वीं सदी के प्रारंभ से ही उनके जोशीले भाषण तथा लेखन से व्यवहारतः उठ खड़ी हुईं और दृढ़ बनी. सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय है, तो वह है विवेकानंद. फिर चाहे वो आन्दोलन अहिंसात्मक हो अथवा क्रांतिकारी. महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे. देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सबकुछ माना, उनके जीवन की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द थे.

स्वामी जी के भाषणों द्वारा पैदा की गई विचारों की चिंगारी का असर वीर सावरकर तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है. वीर सावरकर ने तो संघर्ष कर अंडमान जेल में जो लाईब्रेरी बनवाई, उसमें विवेकानंद साहित्य रखवाया. अपने वृहत काव्य सप्तर्षि में सावरकर जी ने लिखा कि निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे. सन् १९०१ में बेल्लूर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक जी लगातार आठ दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे. तिलक के लेखों में उसके बाद ही दरिद्र नारायण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ. अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सिडीशन कमीशन की रिपोर्ट में इस भेंट का उल्लेख है. कमीशन ने इसे हिन्दू पुनर्जागरण की साजिश करार दिया.

दक्षिण के सुप्रसिद्ध कवि श्री सुब्रह्मण्यम भारती जी की प्रारंभिक कविताओं में तमिल राष्ट्रवाद का उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वामी जी के प्रभाव में आने के बाद उनकी जीवन के उत्तरार्ध में लिखी कविताएं भारतीय हिन्दू राष्ट्रवाद का गुणगान करती हैं. उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि यह परिवर्तन उनकी गुरू भगिनी निवेदिता और स्वामीजी के कारण उत्पन्न हुआ. दूसरी ओर, महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार तथा युगांतर के संस्थापकों में से एक बारींद्रनाथ घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद जी के छोटे भाई) को बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय दिया जाता है. बारींद्रनाथ, महान अध्यात्मवादी श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई थे. भगत सिंह से पहले का भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन एक तरह से स्वामी दयानंद और विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक पुरूषों से अनुप्राणित रहा है. सुप्रसिद्व बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र ने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर पथेर दावी उपन्यास लिखा. पहले यह बंग वाणी में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया.

छोटे-छोटे समूहों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप के दौरान विवेकानंद ने राजनैतिक स्वतंत्रता का आदर्श अपने देशवासियों, विशेषतः युवाओं के सामने, उनके तात्कालिक लक्ष्य के रूप में रखा. यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद की समाधि के तीन वर्षों बाद ही उनके द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया जो अपने आप में एक महान स्वतंत्रता आंदोलन बन गया.

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – ‘यदि हमारे इस समाज में, इस राष्ट्रीय जीवनरूपी जहाज में छिद्र है, तो हम तो उसकी सन्तान हैं. आओ चलें, उन छिद्रों को बन्द कर दें उसके लिए हंसते-हंसते अपने हृदय का रक्त बहा दें और यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमारा मर जाना ही उचित है. हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनाएंगे और जहाज के उन छिद्रों में भर देंगे. पर उसकी कभी भर्त्सना न करें ! इस समाज के विरुद्ध एक कड़ा शब्द तक न निकालो.

 श्रोत - विश्व संवाद केन्द्र, भारत 

Wednesday, January 27, 2021

सोशल मीडिया के सही प्रयोग से देशविरोधी तत्वों को कर सकते हैं बेनकाब

गत दिनों नई दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) में सैन्य अधिकारियों के लिए मीडिया संचार पाठ्यक्रम का आयोजन किया गया। इस दौरान अधिकारियों ने कहा कि कि सूचना और तकनीक के आधुनिक युग में सेना को सोशल मीडिया का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल करने की जरूरत है। सोशल मीडिया हमारी सोच से ज्यादा तेजी से बढ़ा है। हमें इसकी रफ्तार के साथ चलने की जरूरत है

''भारत के विरोधी सोशल मीडिया का इस्तेमाल मनौवैज्ञानिक लड़ाई और धोखेबाजी के लिए कर रहे हैं। हमें इसका फायदा अपनी ताकत बढ़ाने में करना चाहिए। आतंकवाद से लड़ने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा सकता है।'' उक्तक विचार पूर्व उप थल सेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल (सेनि.) राज कादयान ने नई दिल्लीा स्थित भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) द्वारा सैन्य अधिकारियों के लिए आयोजित मीडिया संचार पाठ्यक्रम के समापन समारोह में व्यक्त किए। इस अवसर पर आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी, अपर महानिदेशक (प्रशासन) श्री के. सतीश नंबूदिरीपाद, अपर महानिदेशक (प्रशिक्षण) श्रीमती ममता वर्मा एवं पाठ्यक्रम निदेशक श्रीमती नवनीत कौर भी उपस्थित थीं।

 कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर विचार व्यक्त करते हुए श्री कादयान ने कहा कि सूचना और तकनीक के आधुनिक युग में सेना को सोशल मीडिया का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल करने की जरूरत है। सोशल मीडिया हमारी सोच से ज्यादा तेजी से बढ़ा है। अगर हम इसकी रफ्तार के साथ नहीं चल पाए, तो पीछे छूट जाएंगे।

श्री कादयान के अनुसार युद्ध के दौरान सूचनाओं का सही प्रयोग बेहद अहम है। हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बात करते हैं। अगर हमें इसका इस्तेमाल अपनी ताकत बढ़ाने के लिए करना है, तो हमें सोशल मीडिया से जुड़ना होगा। आज मीडिया देश की ताकत का महत्वपूर्ण स्तंभ है, लेकिन हमें इसका इस्तेमाल अनुशासन के दायरे में रहकर करना होगा। उन्हों ने कहा कि भारतीय रक्षा बलों का साहस, वीरता, प्रतिबद्धता और समर्पण अद्वितीय है। लेकिन देश में कुछ ऐसे तत्व हैं, जो भारतीय सेना की छवि को धूमिल करने के लिए चौबीस घंटे सक्रिय रहते हैं। हम सही मीडिया दृष्टिकोण अपनाकर और संगठित तरीके से विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्म्स का उपयोग करके रक्षा बलों के खिलाफ ऐसे शातिर अभियानों का मुकाबला कर सकते हैं।

इस अवसर पर आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि हमारे देश में सेना को हमेशा सम्मान और गर्व के भाव से देखा जाता है। इसलिए सभी सैन्य अधिकारियों की यह जिम्मेदारी है कि वह अपनी संचार कुशलता से और संचार माध्यमों के सही प्रयोग से भारतीय सेना की उस छवि को बनाए रखें। उन्होेंने कहा कि आज फेक न्यूज अपने आप में एक बड़ा व्यापार बन गई है और डिजिटल मीडिया ने भी इसे प्रभावित किया है। ऐसे में मीडिया साक्षरता की आवश्यकता और बढ़ जाती है। कार्यक्रम का संचालन पाठ्यक्रम समन्वयक विष्णुप्रिया पांडेय ने किया।

गौरतलब है कि आईआईएमसी प्रतिवर्ष सैन्य अधिकारियों के लिए मीडिया एवं संचार से जुड़े शॉर्ट टर्म ट्रेनिंग कोर्सेज का आयोजन करता है। इन पाठ्यक्रमों में तीनों सेनाओं के कैप्टन लेवल से लेकर ब्रिगेडियर लेवल तक के अधिकारी हिस्सा लेते हैं। कोरोना के कारण इस वर्ष यह ट्रेनिंग प्रोग्राम ऑनलाइन आयोजित किया गया है। इस वर्ष लोक मीडिया से लेकर न्यू मीडिया एवं आधुनिक संचार तकनीकों की जानकारी सैन्य अधिकारियों को प्रदान की गई है। इसके अलावा न्यू मीडिया के दौर में किस तरह सेना एवं मीडिया के संबंधों को बेहतर बनाया जा सकता है, इसका प्रशिक्षण भी अधिकारियों को दिया गया है।

श्रोत - पांचजन्य 

https://www.panchjanya.com/Encyc/2021/1/27/Correct-use-of-social-media-can-expose-anti-national-elements.html

Tuesday, January 26, 2021

“26 जनवरी/जन्म-दिवस” स्वतन्त्रता सेनानी रानी मां गाइडिन्ल्य

देश की स्वतन्त्रता के लिए ब्रिटिश जेल में भीषण यातनाएँ भोगने वाली गाइडिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को नागाओं की रांगमेयी जनजाति में हुआ था। केवल 13 वर्ष की अवस्था में ही वह अपने चचेरे भाई जादोनांग से प्रभावित हो गयीं। जादोनांग प्रथम विश्व युद्ध में लड़ चुके थे।

युद्ध के बाद अपने गाँव आकर उन्होंने तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु हराकापन्थ की स्थापना की। आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से जेलियांगरांग कहलाये। इसके बाद वे अपने क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के प्रयास में लग गयेे।

इससे अंग्रेज नाराज हो गये। उन्होंने जादोनांग को 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी; पर नागाओं ने गाइडिन्ल्यू के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं। 17 वर्षीय गाइडिन्ल्यू ने इसका विरोध किया। वे अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। हराका का अर्थ भी शुद्ध एवं पवित्र है। उनके साहस एवं नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे।

अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये। उन्होंने उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की; पर कोई इस लालच में नहीं आया। अब गाइडिन्ल्यू का प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे।

1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया। गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। यह देखकर अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 17 अक्तूबर, 1932 को मिल्स ने अचानक गाइडिन्ल्यू के शिविर पर हमला कर उन्हें पकड़ लिया।

गाइडिन्ल्यू को पहले कोहिमा और फिर इम्फाल लाकर मुकदमा चलाया गया। उन पर राजद्रोह के भीषण आरोप लगाकर 14 साल के लिए जेल के सीखचों के पीछे भेज दिया गया। 1937 में जब पंडित नेहरू असम के प्रवास पर आये, तो उन्होंने गाइडिन्ल्यू को नागाओं की रानीकहकर सम्बोधित किया। तब से यही उनकी उपाधि बन गयी। आजादी के बाद उन्होंने राजनीति के बदले धर्म और समाज की सेवा के मार्ग को चुना।

1958 में कुछ नागा संगठनों ने विदेशी ईसाई मिशनरियों की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया। रानी माँ ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये। इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा। इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।

1972 में भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र और फिर पद्मभूषणदेकर सम्मानित किया। वे अपने क्षेत्र के ईसाइकरण की विरोधी थीं। अतः वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के अनेक सम्मेलनों में गयीं। आजीवन अविवाहित रहकर नागा जाति, हिन्दू धर्म और देश की सेवा करने वाली रानी माँ गाइडिन्ल्यू ने 17 फरवरी, 1993 को यह शरीर और संसार छोड़ दिया।

श्रोत- विश्व संवाद केन्द्र, चित्तौड़