युग के सरोकारों और संवेदनाओं को समझने वाले योद्धा संत
- प्रणय कुमार
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जहां आदि शंकराचार्य ने संपूर्ण
भारतवर्ष को सांस्कृतिक एकता के मज़बूत सूत्र में पिरोया, वहीं स्वामी विवेकानंद ने आधुनिक भारत को उसके स्वत्व एवं
गौरव का बोध कराया. बल्कि यह कहना चाहिए कि उन्होंने भारत का भारत से साक्षात्कार
करा उसे आत्मविस्मृति के गर्त्त से बाहर निकाला. लंबी गुलामी से उपजी औपनिवेशिक
मानसिकता एवं औद्योगिक क्रांति के बाद पश्चिम से आई भौतिकता की आंधी का व्यापक
प्रभाव भारतीय जन-मन पर भी पड़ा. पराभव और परतंत्रता ने हममें हीनता-ग्रंथि विकसित
कर दी. हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना मृतप्राय अवस्था को प्राप्त हो
चुकी थी. नस्लभेदी मानसिकता के कारण पश्चिमी देशों ने न केवल हमारी घनघोर उपेक्षा
की, अपितु हमारे संदर्भ में तर्कों-तथ्यों से परे नितांत
अनैतिहासिक-पूर्वाग्रहग्रस्त-मनगढ़ंत स्थापनाएं भी दीं. और उससे भी अधिक आश्चर्यजनक
यह रहा कि विश्व के सर्वाधिक प्राचीन एवं गौरवशाली संस्कृति के उत्तराधिकारी होने
के बावजूद हम भी उनके सुर-में-सुर मिलाते हुए उनकी ही भाषा बोलने लगे.
उन्होंने (पश्चिम) कहा कि वेद गडरियों द्वारा गाया जाने वाला
गीत है और हमने मान लिया, उन्होंने
कहा कि पुराण-महाकाव्य-उपनिषद आदि गल्प व कपोल कल्पनाएं हैं और हमने मान लिया.
उन्होंने कहा कि राम-कृष्ण जैसे हमारे संस्कृति-पुरुष मात्र मिथकीय चरित्र हैं और
हमने मान लिया. वे हमारी अस्मिता, हमारी
पहचान, हमारी संस्कृति को मिट्टी में मिलाने के लिए शोध और गवेषणा की
आड़ में तमाम निराधार बौद्धिक-साहित्यिक-ऐतिहासिक स्थापनाएं देते गए और हम मानते
गए. वे आक्षेप लगाते गए और हम सिर झुकाकर सहमति से भी एक कदम आगे की विनत मुद्रा
में उसे स्वीकारते चले गए. हमारे वैभवशाली अतीत, गौरवपूर्ण
इतिहास, विशद साहित्य, विपुल
ज्ञानसंपदा, प्रकृति केंद्रित समरस-सात्विक
जीवन-पद्धत्ति आदि को धता बताते हुए उन्होंने हमें पिछड़ा, दकियानूसी, अंधविश्वासी
घोषित किया और हम उनसे भी ऊंचे, लगभग
कोरस के स्वरों में पश्चिमी सुर और शब्दावली दुहराने लगे. हम भूल गए कि रीढ़विहीन, स्वाभिमान शून्य देश या जाति का न तो
कोई वर्तमान होता है, न कोई
भविष्य.
स्वामी विवेकानंद ने हमारी इस जातीय एवं राष्ट्रीय दुर्बलता
को पहचाना और समस्त देशवासियों को इसका सम्यक बोध कराया. भारतवर्ष के सांस्कृतिक
गौरव की प्रथम उद्घोषणा उन्होंने 1893 के
शिकागो-धर्मसभा में संपूर्ण विश्व से पधारे धर्मगुरुओं के बीच की. उन्होंने वहां
हिन्दू धर्म और भारतवर्ष का विजयध्वज फहराया और संपूर्ण विश्व को हमारी परंपरा, हमारे विश्वासों, हमारे
जीवन-मूल्यों और व्यवहार्य सिद्धांतों के पीछे की वैज्ञानिकता एवं अनुभवसिद्धता से
परिचित कराया. उन्होंने पश्चिम को उसके यथार्थ का बोध कराते हुए याद दिलाया कि जब
वहां की सभ्यता शैशवावस्था में थी, तब भारत
विश्व को प्रेम, करुणा, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, बंधुत्व
के पाठ पढ़ा रहा था. हमने सहिष्णुता को केवल खोखले नारों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उससे आगे सह-अस्तित्ववादिता पर आधारित जीवन-पद्धत्ति
विकसित की. यहूदी-पारसी से लेकर संसार भर की पीड़ित-पराजित-बहिष्कृत जातियों को भी
हमने बड़े सम्मान एवं सद्भाव से गले लगाया. सृष्टि के अणु-रेणु में एक ही परम सत्य
को देखने की दिव्य दृष्टि हमने सहस्राब्दियों पूर्व विकसित कर ली थी और इस नाम
रूपात्मक जगत के भीतर समाविष्ट ऐक्य को पहचान लिया था. स्वामी विवेकानंद के शिकागो-भाषण के संबोधन से जुड़े प्रसिद्ध प्रसंग – ”मेरे प्यारे अमेरिकावासी बंधुओं एवं भगनियों” के पीछे यही ऐक्य की भारतीय भावना और जीवन-दृष्टि थी. और
सर्वाधिक उल्लेखनीय तो यह है कि हमारे इस सांस्कृतिक गौरवबोध में भी दुनिया की सभी
संस्कृतियों व धार्मिक मान्यताओं के प्रति स्वीकार व सम्मान का भाव है, न कि उपेक्षा, हीनता या
तिरस्कार का.
स्वामी विवेकानंद ने वेदांत को न केवल ऊंचाई दी, बल्कि उसे जनसाधारण को समझ आने वाली भाषा में समझाया भी.
तत्त्वज्ञान की उनकी मीमांसा- कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग
आदि में क्या विद्वान, क्या
साधारण -सभी समान रूप से रुचि लेते हैं! युवाओं में वे यदि सर्वाधिक लोकप्रिय थे
और हैं तो यह भी समय की धड़कनों को सुन सकने की उनकी असाधारण समझ और अपार सामर्थ्य
का ही सुपरिणाम था. उनकी जयंती युवा-दिवस के रूप में मनाया जाना सर्वथा उपयुक्त ही
है. किसी एक क्षण की कौंध किसी के जीवन में कैसा युगांतकारी बदलाव ला सकती है, यह स्वामी जी के जीवन से सीखा-समझा जा सकता है. परमहंस
रामकृष्ण के साक्षात्कार ने उनके जीवन की दिशा बदलकर रख दी. कहते हैं कि अकेला चना
भाड़ नहीं फोड़ सकता. पर स्वामी विवेकानंद ने अकेले अपने दम पर पूरी दुनिया में
रामकृष्ण मिशन और उसके सेवा-कार्यों की वैश्विक श्रृंखला खड़ी कर दी. वे कहा करते
थे कि उन्हें यदि 1000 तेजस्वी
युवा मिल जाएं तो वे देश की तस्वीर और तक़दीर दोनों बदल सकते हैं. युवा स्वप्न और
तदनुकूल संकल्पों के पर्याय थे – स्वामी
विवेकानंद. उनका जीवन भौतिकता पर आध्यात्म और भोग पर त्याग एवं वैराग्य की विजय का
प्रतीक है. पर त्याग, भक्ति
एवं वैराग्य की आध्यात्मिक भावभूमि पर खड़े होकर भी वे युगीन यथार्थ से अनभिज्ञ
नहीं हैं. वे युग के सरोकारों और संवेदनाओं को भली-भांति समझते हैं. अन्यथा वे
दीनों-दुःखियों की निःस्वार्थ सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म नहीं घोषित करते. युवाओं
के लिए गीता-पाठ से अधिक उपयोगी रोज फुटबॉल खेलने और वर्ज़िश करने को नहीं बताते.
दरिद्रनारायण की सेवा में मोक्ष के द्वार न ढूंढते. और परिश्रम, पुरुषार्थ, परोपकार
को सबसे बड़ा कर्त्तव्य नहीं बताते. हिंदुत्व की अवधारणा के वास्तविक और आधुनिक जनक
स्वामी विवेकानंद ही हैं. धर्म-संस्कृति, राष्ट्र-राष्ट्रीयता
हिंदू-हिंदुत्व आदि का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने वाले, आंखें तरेरने वाले, महाविद्यालय-विश्वविद्यालय
में उनकी मूर्त्ति के अनावरण पर हल्ला-हंगामा
करने वाले, धर्म को अफ़ीम बताने वाले तथाकथित
बुद्धिजीवियों एवं वैचारिक खेमेबाजों को खुलकर यह बताना चाहिए कि स्वामी जी के
विचार और दर्शन पर उनके क्या दृष्टिकोण हैं? क्या
उन्हें भी वे सेलेक्टिव नज़रिए या आधे-अधूरे मन से स्वीकार करेंगे? यदि वे उन्हें समग्रता से स्वीकार करते हैं तो क्या अपनी उन
सब स्थापनाओं व धारणाओं के लिए वे देश से माफ़ी माँगने को तैयार हैं जो स्वामी जी
के विचार एवं दर्शन से बिलकुल भिन्न, बेमेल
एवं विपरीत हैं? क्या वे यह स्पष्टीकरण देने को तैयार
हैं कि क्यों उन्होंने आज तक पीढ़ियों को ऐसी बौद्धिक घुट्टियां पिलाईं जो उन्हें
अपनी जड़ों, संस्कारों, सरोकारों और संस्कृति की सनातन धारा से काटती हैं? विचारधारा के चौखटे एवं चौहद्दियों में बंधे लोग कदाचित ही
ऐसा कर पाएं! पर क्या यह अच्छा नहीं हो कि निहित स्वार्थों, दलगत संकीर्णताओं एवं वैचारिक आबद्धताओं से परे स्वामी जी के
इस ध्येय-वाक्य को हम सब अपना जीवन-ध्येय बनाएं – ” आगामी
पचास वर्षों के लिए हमारा केवल एक ही विचार-केंद्र होगा और वह है हमारी महान
मातृभूमि भारत. दूसरे सब व्यर्थ के देवताओं को उस समय तक के लिए हमारे मन से लुप्त
हो जाने दो. हमारा भारत, हमारा
राष्ट्र-केवल यही एक देवता है जो जाग रहा है, जिसके हर
जगह हाथ हैं, हर जगह पैर हैं, हर जगह कान हैं – जो सब
वस्तुओं में व्याप्त है. हमें उस राष्ट्र-देवता की – उस विराट
की आराधना करनी है.”
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