WELCOME

VSK KASHI
63 MADHAV MARKET
LANKA VARANASI
(U.P.)

Total Pageviews

Tuesday, January 12, 2021

स्वामी विवेकानंद और श्री गुरुजी का राष्ट्रवाद

 - डॉ. हेमंत गुप्ता

स्वामी विवेकानंद एक महान संत एवं प्रखर राष्ट्रवादी थे । देश भ्रमण पर जब भी वे निकलते तो समाज में व्याप्त घोर गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक असमानताओं को देखकर उनका मन करुणा से भर उठता था। वे भारत के लोगों को एक नई ऊर्जा से भर देना चाहते थे। वे भारतवासियों को झकझोरते हुए कहते थे अभय हो! अपने अस्तित्व के कारक तत्व को समझो, उस पर विश्वास करो।भारत की चेतना उंसकी संस्कृति है। अभय होकर इस संस्कृति का प्रचार करो। वे चाहते थे कि आध्यात्म, त्याग और सेवाभाव को राष्ट्रवाद का हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने भारत के लिए एक आध्यात्मिक लक्ष्य निर्धारित किया था।

1893 में विश्व धर्म सभा में प्रस्तुत हिंदू धर्म पर लिखे पत्र (यह उनके भाषणों से पृथक है) में स्वामी विवेकानंद का भी कुछ इसी प्रकार कहा कहना था-

"वेदांत दर्शन की उच्च आध्यात्मिकता, जिसकी गूंज हाल की विज्ञान की खोजों में सुनाई पड़ती है, से लेकर विविध पौराणिक कथाओं से जुड़ी मूर्ति-पूजा, बौद्धों के अनीश्वरवाद, जैनों के निरीश्वरवाद तक सभी का हिंदू धर्म में स्थान है।

कुल मिलाकर अपने अनिवार्य बहुवाद के लिए हिंदू धर्म कई विरोधाभासों के साथ जीता है। कुछ लोगों ने हिंदू धर्म में सांस्कृतिक, भौगोलिक और नस्लीय विशेषताएँ ढूंढ ली हैं ताकि यह एक राष्ट्रीय पहचान के अनुकूल बन सके और इसे हिंदू राष्ट्र से जोड़ा जा सके।"

उन्होंने लिखा, ‘‘हर राष्ट्र की एक नियति होती है, जिसको वह प्राप्त होता है। हर राष्ट्र के पास एक संदेश होता है, जो उसे पहुंचाना होता है। हर राष्ट्र का एक मिशन होता है, जिसे उसे हासिल करना होता है। हमें हमारी नस्ल का मिशन समझना होगा। उस नियति को समझना होगा, जिसे हमें पाना है। राष्ट्रों में हमारा क्या स्थान हो, हमें वह समझना होगा और विभिन्न नस्लों के बीच सौहार्द बढ़ाने में हमारी भूमिका को जानना होगा।‘‘

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरुजी के सिद्धांत स्वामी जी के विचार से काफ़ी प्रभावित थे ।

संगठन में पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार और श्री गुरुजी के सम्बन्धों  की तुलना रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के सम्बन्धों से की जाती है। सरसंघचालक बनने के बाद श्री गुरुजी ने ही अपने पहले भाषण में हेडगेवार की उनपर कृपा को परमहंस की विवेकानन्द पर हुई कृपा के सादृश्य बताया था। (प्र.ग. सहस्रबुद्धे, श्री गुरू जी : एक जीवन यज्ञ, पृ. 5)

गुरुजी के शब्दों में जैसा कि हमें ज्ञात है, नरेंद्र एक अति उच्च मेधा एवं प्रचंड इच्छाशक्ति संपन्न युवक थे। वे ऐसे नहीं थे जिन्हें सम्मोहन के द्वारा किसी बातों पर अंधविश्वास करा दिया जाए, किंतु जब उन्होंने साक्षात् परमात्मा के सम्मुख खड़ा कर दिया गया, तब ईश्वर की सत्यता में विश्वास किए बिना वह नहीं रह सके। ऐसे ईश्वरभक्तों की हमारी जीवंत परम्परा, जिसने हमारे देश का नाम ईश्वरानुभूति की भूमि, धर्मभूमि एवम मोक्षभूमि के रूप में सतत उन्नत रखा है।

हमारे लिए इस भूमि से पवित्र कुछ नहीं हो सकता। इस भूमि की धूलि का एक-एक कण, जड़ और चेतन प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक काष्ठ और प्रस्तर, प्रत्येक वृक्ष एवं नदी हमारे लिए पवित्र है। इस भूमि के बच्चों के हृदय में यह प्रगाढ भक्ति सदैव जीवित रखने हेतु ही पूर्वकाल में यहाँ इतने विधि-विधानों एवं लोकाचारों की स्थापना हुई थी ।

यह देश स्वामी विवेकानंद एवं गुरुजी के लिए कभी भी निर्जीव अचेतन पदार्थ नहीं रहा। स्वामी विवेकानंद जी जब इंग्लैंड से भारत की यात्रा के लिए चलने लगे तो लोगों ने उनसे पूछा कि इंग्लैंड और अमेरिका के समान समृद्ध देशों की यात्रा करने के पश्चात् अब अपनी मातृभूमि के सम्बंध में आपके क्या विचार हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि भारत से पहले प्यार करता था,  किंतु अब तो उसकी धूलि का एक एक कण मेरे लिया अत्यंत पवित्र है, मेरे लिए वह तीर्थस्थल हो गया है।

स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद, मानवतावादी और सार्वभौमिक था। वे जानते थे कि केवल ब्रिटिश संसद द्वारा देश की सत्ता मुट्ठी भर लोगों को हस्तांतरित कर देने से भारत स्वाधीन नहीं हो जाएगा। उनके विचार में ऐसी स्वाधीनता अर्थहीन थी जबतक हर व्यक्ति मानसिक परतंत्रता और हीनता की भावना से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन ना कर पाए। आध्यात्मिकता के इस स्तर पर उसे ज्ञान हो कि वह शरीर मात्र न होकर, अनंत आत्मा है।

स्वामी विवेकानंद एवं श्री गुरुजी के अनुसार राष्ट्र की स्वतंत्रता  एवं उन्नति भारत की संस्कृति एवं उसके पुत्रों के स्वाभिमान को सम्बल करने में निहित थी । यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था, जिसे अपने नागरिकों के स्वाभिमान का उत्थान, उनसे सर्वश्रेष्ठ बनने का आह्वान कर भारत को पुन: जगतगुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने का संदेश था।

- लेखक विश्व संवाद केंद्र, काशी के उपाध्यक्ष हैं

No comments: