WELCOME

VSK KASHI
63 MADHAV MARKET
LANKA VARANASI
(U.P.)

Total Pageviews

Thursday, December 2, 2021

धमनियों में राष्ट्रधर्म (भाग 2) - काशी के लाल शचीन्द्रनाथ सान्याल

 - डॉ हेमन्त गुप्त

काशी की कोख से ऐसे अनेक शूरवीर भारत माता के सपूतों ने जन्म लिया है, जिन्होंने माँ भारती की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। काशी के एक ऐसे ही लाल शचीन्द्रनाथ सान्याल भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। राष्ट्र्भक्ति से ओतप्रोत इस नवयुवक ने अनेक राष्ट्रीय व क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की । साथ ही साथ उन्होंने नई क्रान्तिकारियों की पीढ़ी का सृजन एवं मार्गदर्शन किया।

शचीन्द्रनाथ सान्याल का जन्म 1893 में वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिनाथ सान्याल और माता का नाम वासिनी देवी था। शचीन्द्रनाथ के अन्य भाइयों के नाम थे- रविन्द्रनाथ, जितेन्द्रनाथ और भूपेन्द्रनाथ। इनमें भूपेन्द्रनाथ सान्याल सबसे छोटे थे। कहा जाता है कि पिता हरिनाथ सान्याल ने अपने सभी पुत्रों को बंगाल की क्रांतिकारी संस्था 'अनुशीलन समिति' के कार्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया था। पिता की शिक्षा एवं राष्ट्र्भक्ति के कारण चापेकर' बन्धुओं की तरह ही तीनों 'सान्याल बन्धु' भी राष्ट्रवादी धारा के साथ दृढ़ता के साथ खड़े रहे। इसी का परिणाम था कि शचीन्द्रनाथ के बड़े भाई रविन्द्रनाथ सान्याल 'बनारस षड़यंत्र केस' में नजरबन्द रहे। छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल को 'काकोरी काण्ड' में पाँच वर्ष क़ैद की सज़ा हुई और तीसरे भाई जितेन्द्रनाथ 1929 के 'लाहौर षड़यंत्र केस' में भगत सिंह आदि के साथ अभियुक्त थे।

सान्याल का शैशव काशी में बीता । पिता से उन्हें देशभक्ति का  जज़्बा मिला। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बंगाली टोला हाई स्कूल और क्वीन्स कॉलेज बनारस में हुई थी। काशी की मिट्टी ने उन्हें ज्ञान, विज्ञान के साथ साथ अपनी संस्कृति और राष्ट्र से प्रेम का भी पाठ पढ़ाया। 1905 में "बंगाल विभाजन" के बाद खड़ी हुई ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी लहर ने उस समय के बच्चों और नवयुवकों को राष्ट्रवाद की शिक्षा व प्रेरणा देने का महान् कार्य किया। शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनके पूरे परिवार पर इसका प्रभाव पड़ा। 1908 में पिता के निधन के बाद अपने अध्ययन काल के दौरान ही उन्होंने काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन किया। शचीन्द्रनाथ की 1913 में फ्रेंच बस्ती चंदननगर में सुविख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भेंट हुई। सान्याल और रासबिहारी बोस दोने ही एक दूसरे के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गए थे। इसके कुछ ही दिनों में काशी केंद्र का चंदननगर दल में विलय हो गया और रासबिहारी काशी आकर रहने लगे। क्रमशः काशी उत्तर भारत में क्रांति का केंद्र बन गई।

1914 का वर्ष पूरे विश्व के लिए अनिश्चित्तता और संघर्ष का समय था। विश्व की महाशक्तियाँ जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था के बीच में प्रथम महायुद्ध छिड़ चुका था। ब्रिटेन को इस तरह से घिरा हुआ देखते हुए कुछ वीर सिक्ख दल ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिए अमरीका और कनाडा से स्वदेश प्रत्यावर्तन करने लगे थे। रासबिहारी उस समय के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे| अतः यह दल उनके नेतृत्व में इस कार्य को अंजाम देना चाहता था| अतः उन्होंने रासबिहारी जी से पंजाब आने का अनुरोध किया। रासबिहारी जी ने शचींद्र को सिक्खों से संपर्क करने, स्थिति से परिचित होने और प्रारंभिक योजना बनाने के लिए लुधियाना भेजा। इस कार्य के सिलसिले में वे कई बार लाहौर, लुधियाना गए। शचींद्र के काशी लौटकर उन्हें आश्वस्त करने पर रासबिहारी लाहौर चले गए। लाहौर के सिक्ख रेजिमेंटों ने 21 फ़रवरी 1915 को विद्रोह शुरू करने का निश्चय कर लिया था और काशी की एक सिक्ख रेजिमेंट ने भी विद्रोह शुरू होने पर साथ देने का वादा किया था परंतु दुर्भाग्य से योजना विफल हुई, चारों ओर पुलिस ने धरपकड़ शुरू हो गई और बहुतों को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। रासबिहारी काशी लौट आए और शचिन्द्र के साथ नई योजना बनाने लगे। तत्कालीन होम मेंबर सर रेजिनाल्ड क्रेडक की हत्या के आयोजन के लिए शचींद्र को दिल्ली भेजा गया परंतु यह कार्य भी असफल रहा। रासबिहारी को जापान भेजना तय हुआ। 12 मई 1915 को गिरजा बाबू और शचीन्द्र ने उन्हें कलकत्ते के बंदरगाह पर छोड़ा। दो तीन महीने बाद काशी लौटने पर शचींद्र गिरफ्तार कर लिए गए। लाहौर षड्यंत्र मामले की शाखा के रूप में बनारस पूरक षड्यंत्र केस चला और शचींद्र को आजन्म कालेपानी की सजा मिली।

युद्धोपरांत शाही घोषणा के परिणामस्वरूप फरवरी, 1920 में वीरेंद्र, उपेंद्र आदि के साथ शचींद्र रिहा हुए। 1921 में नागपुर कांग्रेस में राजबंदियों के प्रति सहानुभूति का एक संदेश भेजा गया। विषय निर्वाचन समिति के सदस्य के रूप में शचींद्र ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए एक भाषण किया। क्रांतिकारियों ने गांधी जी को सत्याग्रह आंदोलन के समय एक वर्ष तक अपना कार्य स्थगित रखने का वचन दिया था। चौरी चौरा कांड के बाद सत्याग्रह वापस लिए जाने पर, उन्होंने पुन: क्रांतिकारी संगठन का कार्य शुरू कर दिया। 1923 के प्रारंभ में रावलपिंडी से लेकर दानापुर तक लगभग 25 केंद्रों की उन्होंने स्थापना कर ली थी। इस दौरान लाहौर में तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स के कुछ छात्रों से उनका संपर्क हुआ। इन छात्रों में सरदार भगत सिंह भी थे। कहा जाता है कि जब भगत सिंह का परिवार शादी के लिए पीछे पड़ गया तो उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। ऐसे में उन्होंने बनारस के शचींद्रनाथ सान्याल को पत्र लिखकर मार्ग प्रशस्त करने की गुजारिश की। जवाब में सान्याल ने लिखा, विवाह करना या न करना तुम्हारी इच्छा पर है। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि शादी के बाद देश के लिए बड़ा काम करना तुम्हारे लिए संभव नहीं होगा।

पारिवारिक बंधन धीरे-धीरे तुम्हें इतना जकड़ लेगा कि देशभक्ति से बहुत दूर हो जाओगे। यदि तुमने खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया है तो विवाह के बंधन को अस्वीकार कर दो। ऐसे में विवाह करना देशद्रोह के समान है। संभव है कि इस बार मना करने के बाद परिवार वाले आगे भी तुम पर दबाव डालते रहेंगे। इसलिए तुम घर-परिवार छोड़ दो। यदि तुम्हें यह स्वीकार है तो मैं तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकता हूं। शचीन्द्रनाथ के इस पत्र ने भगत सिंह की दुविधा दूर कर दी।

भगतसिंह को उन्होंने दल में शामिल कर लिया और उन्हें कानपुर भेजा। इसी समय उन्होंने कलकत्ते में यतींद्र दास को चुन लिया। यह वही यतींद्र हैं, जिन्होंने लाहौर षड्यंत्र केस में भूख हड़ताल से अपने जीवन का बलिदान किया। 1923 में ही कौंसिल प्रवेश के प्रश्न पर दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ। इस अवसर पर शचींद्र ने देशवासियों के नाम एक अपील निकाली, जिसपर कांग्रेस महासमिति के अनेक सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। कांग्रेस से अपना ध्येय बदलकर पूर्ण स्वतंत्रता लिए जाने का प्रस्ताव था। इसमें एशियाई राष्ट्रों के संघ के निर्माण का सुझाव भी दिया गया। अमेरिकन पत्र 'न्यू रिपब्लिक' ने अपील ज्यों की त्यों छाप दी, जिसकी एक प्रति रासबिहारी ने जापान से शचींद्र को भेजी। इस अधिवेशन के अवसर पर ही कुतुबद्दीन अहमद उनके पास मानवेंद्र राय का एक संदेश ले आए, जिसमें उन्हें कम्युनिस्ट अंतरराष्ट्रीय संघ की तीसरी बैठक में शामिल होने को आमंत्रित किया गया था। इसके कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने दल का नामकरण किया 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन'। उन्होंने इसका जो संविधान तैयार किया, उसका लक्ष्य था सुसंगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा भारतीय लोकतंत्र संघ की स्थापना। कार्यक्रम में खुले तौर पर आम और गुप्त संगठन दोनों शामिल थे। क्रांतिकारी साहित्य के सृजन पर विशेष बल दिया गया था। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के बारे में भी इसमें प्रचुर इंगित था। संविधान के शब्दों में 'इस प्रजातंत्र संघ में उन सब व्यवस्थाओं का अंत कर दिया जाएगा जिनसे किसी एक मनुष्य द्वारा दूसरे का शोषण हो सकने का अवसर मिल सकता है।' विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों के साथ घनिष्ठ संबंध रखना भी कार्यक्रम का एक अंग था। बेलगाँव कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी जी ने क्रांतिकारियों की जो आलोचना की थी, उसके प्रत्युत्तर में शचींद्र ने महात्मा जी को एक पत्र लिखा। गांधी जी ने यंग इंडिया के 12 फ़रवरी 1925 के अंक में इस पत्र को ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया और साथ ही अपना उत्तर भी। लगभग इसी समय सूर्यकांत सेन के नेतृत्व में चटगाँव दल का, शचींद्र के प्रयत्न से, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से संबंध हो गया। शचींद्र बंगाल आर्डिनेंस के अधीन गिरफ्तार कर लिए गए। उनकी गिरफ्तारी के पहले 'दि रिह्वलूशनरी' नाम का पर्चा पंजाब से लेकर बर्मा तक बँटा। इस पर्चे के लेखक और प्रकाशक के रूप में बाँकुड़ा में शचींद्र पर मुकदमा चला और राजद्रोह के अपराध में उन्हें दो वर्ष के कारावास का दंड मिला। कैद की हालत में ही वे काकोरी षड्यंत्र केस में शामिल किए गए और संगठन के प्रमुख नेता के रूप में उन्हें पुन: अप्रैल, 1927 में आजन्म कारावास की सजा दी गई। 1937 में संयुक्त प्रदेश में कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ वे रिहा किए गए। रिहा होने पर कुछ दिनों वे कांग्रेस के प्रतिनिधि थे, परंतु बाद को वे फारवर्ड ब्लाक में शामिल हुए। इसी समय काशी में उन्होंने 'अग्रगामी' नाम से एक दैनिक पत्र निकाला। वह स्वयं इसस पत्र के संपादक थे। द्वितीय महायुद्ध छिड़ने के कोई साल भर बाद 1940 में उन्हें पुन: नजरबंद कर राजस्थान के देवली शिविर में भेज दिया गया। वहाँ यक्ष्मा रोग से आक्रांत होने पर इलाज के लिए उन्हें रिहा कर दिया गया। परंतु बीमारी बढ़ गई और 1942 में उनकी मृत्यु हो गई। क्रांतिकारी आंदोलन को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करना उनका विशेष कृतित्व था। उनका दृढ़ मत था कि विशिष्ट दार्शनिक सिद्धांत के बिना कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता। 'विचारविनिमय' नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने अपना दार्शनिक दृष्टिकोण किसी अंश तक प्रस्तुत किया है। 'साहित्य, समाज और धर्म' में भी उनके अपने विशेष दार्शनिक दृष्टिकोण का भी परिचय मिलता है।

(लेखक विश्व संवाद केन्द्र, काशी कार्यसमिति के अध्यक्ष हैं)

No comments: