महात्मा गांधी 3 फरवरी, 1916 को काशी
विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गए थे. अपनी इस तीर्थयात्रा का जिक्र उन्होंने अगले
दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भी किया था. उस दिन महात्मा
गाँधी ने मंदिर के आसपास फैली अव्यवस्था की ओर इशारा करते हुए कहा था – “मैं विश्वनाथ के दर्शनों के लिए गया था. उन गलियों में चलते
हुए मेरे मन में ख्याल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मंदिर पर उतर पड़े और
यदि उसे हम हिन्दुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी
राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह
महान मंदिर हमारे अपने आचरण की और उंगली नहीं उठाता? मैं यह
बात एक हिन्दू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ. क्या यह कोई ठीक बात नहीं है कि
हमारे पवित्र मंदिर के आसपास की गलियां इतनी गन्दी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं, वे
बे-सिलसिले और चाहे जैसे हो. गलियां टेढ़ी-मेढ़ी और संकरी हों. अगर हमारे मंदिर भी
सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज कैसा होगा? चाहे
ख़ुशी से, चाहे लाचारी से अंग्रेजों का
बोरिया-बसना बंधते ही, क्या
हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता
और शांति के धाम बन जाएंगे?” (महात्मा
गाँधी सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 13, प्रकाशन विभाग: नई दिल्ली, 1965, पृष्ठ 214-215)
महात्मा गाँधी का यह दर्द दो
तरह से समझा जा सकता है. पहला – वे बरसों
पुरानी भारतीय आध्यात्मिक – सांस्कृतिक
विरासत के केन्द्रों पर मुगलों एवं ब्रिटिश सरकार की अनदेखी की ओर सबका ध्यान
आकर्षित करना चाहते थे. उनका प्रश्न एकदम स्पष्ट था कि अंग्रेज भारत से बिलकुल
जाएंगे, लेकिन हमारे यह मंदिर कब अपने पहले
जैसे भव्य स्वरुप में आएंगे? दूसरा – ऐसा लगता है कि उन्होंने इस मुद्दे को जानबूझकर उठाया था.
दरअसल, उस दिन दरभंगा के महाराजा रामेश्वर
सिंह, एनी बेसेंट और मदनमोहन मालवीय भी वहां
उपस्थित थे. अतः महात्मा गाँधी मंच के माध्यम से इन सभी को एक सन्देश देना चाहते
थे कि भारत के स्वराज को हमारे मंदिरों के साथ भी जोड़कर देखना चाहिए.
महात्मा गाँधी अपने एक पत्र में
बनारस को सम्मान देते हुए यानि ‘काशीजी’ कहकर संबोधित करते हैं. (महात्मा गाँधी सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 17, प्रकाशन
विभाग : नई दिल्ली,
1966, पृष्ठ 62)
उनका बनारस के प्रति लगाव कोई
अचानक से नहीं उमड़ा था, बल्कि यह
उनके व्यक्तिव में ही शामिल था. महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो
सबसे पहले कोलकाता (उस दौरान कलकत्ता) गए, जहाँ
उन्हें अपनी वकालत से जुड़े कुछ काम थे. साथ-ही-साथ साल 1901 में इसी शहर में कांग्रेस का अधिवेशन भी प्रस्तावित था, जिसमें वे भी शामिल हुए थे. इसके बाद उन्होंने कोलकाता में ही
रूककर एक महीना गोपाल कृष्ण गोखले के साथ बिताने का निश्चय किया. वास्तव में, यहीं से मोहनदास करमचंद गाँधी के महात्मा गाँधी बनने के सफर
का पहला अध्याय शुरू होता है.
दरअसल, गोखले के साथ बिताये हुए समय के दौरान उन्होंने भारत दर्शन का
निर्णय लिया. उन्होंने अपनी इस यात्रा का मार्ग कोलकाता से काशी, आगरा, जयपुर और
पालनपुर होते हुए राजकोट तक चुना. यह यात्रा उन्होंने रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में
की और धर्मशालाओं एवं यात्रियों की भांति पंडों के घरों में रुके. भारत को समझने
के क्रम में वे इन शहरों में एक-एक दिन रुके. विशेष यह कि अपनी इस यात्रा में
सिर्फ उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन का वर्णन खुद अपनी आत्मकथा, ‘सत्य के साथ प्रयोग’ में किया
है.
विश्वनाथ के दर्शन के अनुभवों
पर उन्होंने पूरा एक अध्याय लिखा है. हालाँकि उनका उद्देश्य मंदिर के दर्शन करना
था, चूँकि सफाई के प्रति उनका झुकाव था, इसलिए वे वहां फैली प्रशासनिक अव्यवस्थाओं को देखकर थोड़े
निराश भी हुए. अपनी इस तीर्थयात्रा पर वे लिखते है, “काशी
स्टेशन पर मैं सवेरे उतरा. मुझे किसी पण्डे के ही यहाँ उतरना था. कई ब्राहमणों ने
मुझे घेर लिया. उनमें से जो मुझे थोड़ा सुघड़ और सज्जन लगा उसका घर मैंने पसंद
किया. मेरा चुनाव अच्छा सिद्ध हुआ. ब्राहमण के आंगन में गाय बंधी थी. ऊपर एक कमरा
था. उसमें मुझे ठहराया गया. मैं विधिपूर्वक गंगा-स्नान करना चाहता था. तब तक मुझे
उपवास रखना था. पण्डे ने सब तैयारी की. मैंने उससे कह रखा था कि मैं सवा रुपये से
अधिक दक्षिणा नहीं दे सकूँगा, अतएव वह
उसके लायक तैयारी करे.
पण्डे ने बिना झगड़े के मेरी
विनती स्वीकार कर ली. वह बोला, ‘हम लोग
अमीर-गरीब सब लोगों को पूजा तो एक ही कराते हैं. दक्षिणा यजमान की इच्छा पर, शक्ति पर निर्भर करती है’. मेरे
ख्याल से पंडाजी ने पूजा-विधि में कोई गड़बड़ी नहीं की. लगभग बारह बजे इससे फुरसत
पाकर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया.” (महात्मा
गाँधी सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 39, प्रकाशन विभाग : नई दिल्ली, 1971, पृष्ठ 186-187)
महात्मा गाँधी अपने जीवन में
कुल तीन बार काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए गए थे. इस बात में कोई दोराय नहीं कि
उन्हें किसी भी तरह का पाखंड रास नहीं आता था, अतः
उन्हें वहां जैसा दिखा अथवा समझ आया, उस पर
उन्होंने अपने स्पष्ट विचार रखे. जब उन्होंने हरिजनों को लेकर आन्दोलन शुरू किया, तो उनके मंदिरों में प्रवेश पर भी उनका मत सटीक था. साल 1936 (10 जून) में कंगेरी के हरिजन सेवक सम्मलेन में उन्होंने कहा, “मैं दावा करता हूँ कि मैं किसी कट्टर सनातनी हिन्दू से कम
अच्छा हिन्दू नहीं हूँ. हिन्दू धर्म के तमाम अनुशासनों को अपने जीवन में उतारने का
मैंने अपनी क्षमता भर प्रयत्न किया है. मैं मानता हूँ कि मेरी क्षमता अल्प है.
लेकिन इससे हिन्दू धर्म के प्रति मेरे हृदय में जो भाव और भक्ति है, उसमें कोई कमी नहीं आ जाती. हिन्दू धर्म के प्रति उस पूरे
भक्तिभाव के होते हुए भी मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ आपसे यह कहता हूँ कि जब तक एक
भी हरिजन के लिए काशी के मंदिर के द्वार बंद हैं, तब तक
उसके अन्दर भगवान् विश्वनाथ का वास नहीं है.” (महात्मा
गाँधी सम्पूर्ण वांग्मय, खंड 63, प्रकाशन विभाग : नई दिल्ली, 1976, पृष्ठ 41)
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