प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव का कार्यकाल जम्मू और कश्मीर के
लिए अनेक उतार-चढ़ावों वाला था. एक तरफ कश्मीर घाटी से हिन्दुओं का नरसंहार और
निष्कासन लगातार जारी था. वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर (पीओजेके)
में भारत के खिलाफ आतंकवादियों के प्रशिक्षण की शुरुआत हो चुकी थी. अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर भी पाकिस्तान की भाषा को समर्थन मिलने लगा था. साल 1993 में अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट
में उप-सहायक सचिव (दक्षिण एशिया) जॉन मैलोट भारत के दौरे पर थे. उन्होंने कश्मीर
में भारतीय सेना पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का झूठा आरोप लगा दिया.
यह सोची-समझी साजिशें थी, जिनकी
भूमिका पाकिस्तान के तत्कालीन दो प्रधानमंत्रियों ने लिखी थी. साल 1990 में बेनजीर भुट्टो और फिर 1991-93 के बीच नवाज शरीफ ने पीओजेके के
लगातार कई दौरे किये. भुट्टो ने 13 मार्च, 1990 में मुज़फ्फराबाद की एक सभा में
भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों का सार्वजनिक समर्थन किया. शरीफ भी पीछे नहीं
थे और पीओजेके से ‘कश्मीर
बनेगा पाकिस्तान’ जैसे
युद्धक नारे लगाने शुरू कर दिए.
अब इस मामले पर तुरंत प्रभावी कार्यवाही की जरुरत थी. इसलिए भाजपा
ने प्रमुख विपक्षी दल के नाते केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरु कर दिया. इसमें कोई
दोराय नहीं है कि प्रधानमंत्री राव एक सुलझे हुए व्यक्ति थे. उन्होंने भी समस्या
की गंभीरता को समझा और पहला कदम 22 फरवरी, 1994 उठाया. उस दिन संसद ने पीओजेके पर
एक संकल्प पारित किया था. लोकसभा के अध्यक्ष शिवराज पाटिल और राज्यसभा के सभापति
के. आर. नारायणन (भारत के उपराष्ट्रपति) ने जम्मू-कश्मीर राज्य सम्बन्धी इस
प्रस्ताव को दोनों सदनों के समक्ष रखा. जिसमें सर्वसम्मति से जोर दिया गया कि
पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के कब्जे वाले इलाकों को खाली कराना होगा.
लगभग साल बाद केंद्र सरकार ने पीओजेके को लेकर दूसरा कदम उठाया.
साल 1995
में पाकिस्तान अधिकृत
कश्मीर (जम्मू सहित) और उत्तरी इलाकों (गिलगित-बाल्टिस्तान) पर विदेश मंत्रालय की
स्टैंडिंग कमेटी ने संसद में एक रिपोर्ट पेश की. भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी इसकी
अध्यक्षता कर रहे थे. इस सर्वदलीय कमेटी में लोकसभा और राज्यसभा से 45 सदस्यों को शामिल किया गया था, जिन्होंने दोहराया कि पूरा
जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है. साथ ही कमेटी ने सुझाव दिया कि पीओजेके और
गिलगित-बाल्टिस्तान में मानवाधिकारों के हनन पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष
आवाज़ उठाई जानी चाहिए.
यह दोनों अभूतपूर्व कदम थे, जो
सालों पहले ही उठा लिए जाने चाहिए थे. दरअसल पिछले तीन दशकों से यह मुद्दा केंद्र
सरकारों की प्राथमिकता में शामिल नहीं था. इस बीच पाकिस्तान ने मनगढ़ंत कहानियां
बनानी शुरू कर दीं. इसके जिम्मेदार पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे. इस
दास्तां की शुरुआत 30 अप्रैल, 1962 को होती है. राज्यसभा में अटल
बिहारी वाजपेयी (उन दिनों जनसंघ) ने पीओजेके पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगा.
हालांकि,
जवाब विदेश राज्य
मंत्री लक्ष्मी मेनन ने दिया. वाजपेयी ने फिर से प्रधानमंत्री की तरफ इशारा किया
और तब प्रधानमंत्री नेहरू खड़े हुए. आखिरकार, उन्होंने
पाकिस्तान के साथ बातचीत करने की बात कहकर मुद्दे को टाल दिया.
जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया ने भारतीय
हितों को नुकसान पहुंचाया है. जबकि जम्मू-कश्मीर भारत का एक आंतरिक मामला है, जिस पर भारत की संसद ही फैसला कर
सकती है. प्रधानमंत्री नेहरू अपनी ‘बातचीत’ की नीति पर काबिज रहे और साल 1964 में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान
भेजा. उनकी मुलाकात पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से हुई. इस पूरे दौरे में
उनेक साथ गुलाम अब्बास भी मौजूद थे. अब्बास को ही पाकिस्तान ने ‘आजाद कश्मीर सरकार’ का मुखिया घोषित किया था. इन बातचीतों
का कोई ठोस फायदा हुआ नहीं और होना भी नहीं था. इसी बीच प्रधानमंत्री नेहरू का
निधन हो गया और शेख दिल्ली लौट आए.
यही एक ‘बातचीत’ असफल नहीं हुई, इसके बाद कई दौर की मुलाकातें भी
बेनतीजा रहीं. फिर भी अगली सरकारों ने इस टालमटोल को जारी रखा. इसका एक उदाहरण
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय विदेश राज्य मंत्री बी. आर. भगत ने पेश किया.
साल 1968
में जनसंघ के राज्यसभा
सदस्य निरंजन वर्मा (मध्य प्रदेश) ने प्रधानमंत्री से सवाल किया, “जम्मू तथा कश्मीर के जिस भाग पर
पाकिस्तान ने बलात कब्जा कर लिया था और जिसे पाकिस्तान सरकार ने आजाद कश्मीर की
संज्ञा दी थी, उस
भाग को वापस लेने के लिए भारत सरकार ने अब तक क्या कार्यवाही की है?” भगत ने जवाब दिया, “सरकार को उससे अधिक और कुछ नहीं
कहना है जो स्वर्गीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राज्य सभा में 30 अप्रैल, 1962 को अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा
पूछे गए प्रश्न संख्या 129 के
पूरक प्रश्नों के दौरान कहा था.”
हालांकि, इस
दौर में एक बार ऐसा मौका आया जब महसूस किया गया कि भारत ने पीओजेके के मुद्दे पर
प्रभावी तरीके से अपनी बात रखी है. यह बात 1975 की
है, जब शेख अब्दुल्ला श्रीनगर के लालचौक
पर एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. चमत्कारिक तौर पर उनके भाषण का केंद्र बिंदु
पीओजेके था. आमतौर पर शेख की नीतियों में कोई प्रभाव नज़र नहीं आता है और हमेशा वे
पीओजेके पर बात करने से बचते रहे. इस बार उनका यह भाषण मात्र एक कारण से
महत्वपूर्ण बन गया, क्योंकि
28 सालों (1947 से) बाद उन्होंने पहली बार
सार्वजानिक मंच से पीओजेके पर चर्चा की थी.
शुरुआत से ही अगर भारत सरकार ने पीओजेके पर गंभीरता से रुख किया
होता, तो आज इतिहास कुछ अलग ही होता.
जिस दिन कश्मीर रियासत का भारत के साथ अधिमिलन हुआ, उसी दिन महात्मा गाँधी ने पीओजेके पर एक बात कही, वह इस प्रकार थी, “जो कुछ भी कश्मीर में हो रहा है, मुझे उसकी जानकारी है. पाकिस्तान
कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने का दबाव बना रहा है. ऐसा नहीं होना चाहिए. किसी से
जबरदस्ती कुछ भी लेना संभव नहीं है.” यह
उन्होंने तब कहा, जब
पाकिस्तान की सेना जम्मू-कश्मीर पर हमला कर चुकी थी. गांधी जी ने आगे कहा, “लोगों पर हमला नहीं किया जा सकता
और उनके गांवों को जलाकर उन्हें विवश नहीं किया जा सकता. अगर कश्मीर के लोग, चाहे वे मुस्लिम बहुसंख्यक ही
क्यों न हों,
अगर भारत के साथ
अधिमिलन चाहते हैं तो कोई उन्हें नहीं रोक सकता.”
महात्मा गांधी की सलाह को प्रधानमंत्री नेहरू ने अनदेखा किया. शेख
ने भी अपनी बात रखने में बहुत वक्त लगा दिया. वास्तव में तो प्रधानमंत्री नरसिम्हा
राव से पहले ही पीओजेके को वापस लेने के लिए भारत सरकार को अपनी नीतियां स्पष्ट कर
देनी थीं. हालांकि कुछ भरपाई प्रधानमंत्री नरसिम्हा ने की, लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी है.
अंत में,
हमें महात्मा गांधी
द्वारा एक प्रार्थना सभा में दिया गया कथन हमेशा याद रखना चाहिए. उन्होंने 16 जुलाई, 1947 को कहा था कि कश्मीर से लेकर
कन्याकुमारी के मध्य रहने वाले सभी भारतीय नागरिक हैं.
- देवेश खंडेलवाल