केरल में वामपंथी तूफान के कारण अन्धेरा छाया हुआ था. वहां का हिन्दू समाज, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू धर्म के विषय में बोलने का आत्मविश्वास खो बैठा था. आदि शंकराचार्य की भूमि पर संस्कृत, योग, गीता, रामायण लुप्त होने लगे थे. ऐसे समय में एक प्रखर विचारवंत, लेखक, एक भावपूर्ण कवि, स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी, एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में केरल के क्षितिज पर परमेश्वरन जी के रूप में सूर्य का उदय हुआ.
स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरबिन्दो का सम्मिश्रण था परमेश्वरन जी में. प्रगाढ़ वाचन, गहराई से चिन्तन, भ्रम दूर कर अंतर्दृष्टि प्रकटित करने वाला लेखन और साथ साथ ही समाज जागरण के लिए सक्रिय कार्य, उनकी विशेषता थी. “धर्म भारत की आत्मा है; समाज का पुनर्जागरण करना है तो वह धर्म के माध्यम से ही होगा” स्वामी विवेकानन्द का यह विचार समझकर, केरल के समाज को जागृत करना है, जोड़ना है, इसलिए उन्होंने पुस्तक लिखी – श्री नारायण गुरु पर. फिर समाज में फैला भ्रम दूर करने के लिए लोगों में वैचारिक स्पष्टता के लिए पुस्तक लिखी – ‘मार्क्स और विवेकानन्द’.
‘कर्कटक मास’ में केरल में शुभ कार्य नहीं होते थे. वामपंथी विचारधारा के प्रभाव के कारण केरल के कुछ स्थानों पर लोगों ने इस मास में मंदिर जाना भी बंद कर दिया था, जबकि ऐसी कोई रीती नहीं थी. इसके विपरीत इस महीने में रामायण का पठन होता था. माननीय परमेश्वरन जी ने उस प्रथा को पुनरुज्जीवित किया और इसके माध्यम से भारतीय विचार, संस्कृति, इतिहास लोगों तक फिर से पहुंचने लगा. धीरे-धीरे यह कर्कटक मास फिर से ‘रामायण मास’ बन गया.
उनके घर के लोग आपस में संस्कृत में बात करते थे. पर, समाज जीवन से संस्कृत लुप्त हो रही थी. साथ ही साथ लोगों की ‘योग और भगवत्गीता’ के प्रति श्रद्धा कम होती देख उन्होंने “संयोगी” कार्यक्रम शुरू किया. जिसके अंतर्गत संस्कृत (सं), योग (यो) और गीता (गीता) पर अनेकों कार्यक्रम किये, बड़े-बड़े सम्मलेन किये. “श्रीमद्भगवत्गीता ये किसी एक पंथ – मार्ग – या रिलिजन की पवित्र पुस्तक मात्र नहीं तो यह भारतीयों का अपना राष्ट्रीय ग्रन्थ है”. उनकी यह बात लोगों के ह्रदय में उतरी. भारतीय विचार केन्द्र के निदेशक का दायित्व निभाते हुए उन्होंने केवल केरल को ही नहीं तो पूरे भारत को वैचारिक मार्गदर्शन दिया.
वे विवेकानन्द शिला स्मारक के निर्माण से भी जुड़े थे. 1984 में विवेकानन्द केन्द्र के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष और 1995 से अंतिम श्वास तक अखिल भारतीय अध्यक्ष के दायित्व का निर्वहन किया. विवेकानन्द केन्द्र की अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘युव भारती’ में वे सम्पादकीय लिखते थे, जिसका वाचक वर्ग आतुरता से प्रतीक्षा करता था. उन सम्पादकीयों का संकलन ‘हार्ट बीट्स ऑफ़ हिन्दू नेशन’ पुस्तक में किया गया है. उनके वह लेख आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने 10-15 वर्ष पहले थे.
उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के 150वें जयन्ती समारोह में अलग अलग विचारधारा के 108 विचारवन्तों से स्वामी विवेकानन्द पर लेख लिखवाकर उन्हें एकसाथ लाए, उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित किया.
2012 – 13 में हुए स्वामी विवेकानन्द सार्धशती (150) समारोह के उद्घाटन में उन्होंने बताया था – “भारत के इतिहास की ऐसी 2 घटनाएं, जिनके कारण दिशा बदल गयी और भारत का भाग्योदय हुआ, वे घटनाएं स्वामी विवेकानन्द से जुड़ी हुई हैं. स्वामी विवेकानन्द का शिकागो का भाषण (1893), जिसके कारण विश्व का भारत के प्रति दृष्टिकोण बदल गया और धर्म, गीता, योग सीखने विदेशी लोग भारत आने लगे. भारतीयों का आत्मगौरव उन्होंने पुन: प्राप्त कराया. इससे अनेकों युवाओं के ह्रदय में राष्ट्रभक्ति की मशाल जगी और भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन ने जोर पकड़ा. स्वामी विवेकानन्द की जन्मशती (1963) के उपलक्ष्य में कन्याकुमारी में बने विवेकानन्द शिला स्मारक ने पूरे भारत को एक किया और चीन के साथ युद्ध हारने पर खोया हुआ आत्मविश्वास फिर जगाया. उसके बाद भारत कभी भी कोई भी युद्ध नहीं हारा है. अब तीसरी बार भारत का भाग्योदय होगा, स्वामी जी की 150वीं जयन्ती के बाद भारत का खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से जाग उठेगा और विश्व में भारत का गौरव बढ़ेगा.” परमेश्वरन जी के 2012-13 में कहे गए ये शब्द आज सत्य साबित हो रहे हैं.
उनके भाषण कभी आवेशपूर्ण नहीं होते थे; पर विचारों की प्रखरता शांत तेजस्वी मुख से अचूक शब्दों द्वारा प्रकट होती थी. ये केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं था, इसके पीछे गहरा चिन्तन और अनुभव का प्रकटीकरण था. वे श्रोताओं के मन की गहराई में विचारों को ऐसे उतारते थे कि श्रोताओं को उन्नत होने का अनुभव दिलाते थे.
मेरा सौभाग्य है कि थोड़ा ही समय हो, पर उनका सान्निध्य मुझे प्राप्त हुआ. विवेकानन्द केन्द्र के सभी पूर्णकालीन कार्यकर्ताओं पर उनका पितास्वरूप स्नेह था. एक पिता जैसे अपने बच्चों से बात करेगा वैसे ही वे हमसे बात करते थे. हमारे प्रशिक्षण के पहले दिन उन्होंने बताया था – “आप लोग जीवनव्रती के प्रशिक्षण के लिए कन्याकुमारी में तीन महीने रहने वाले हो, तो इन तीन महीनों में अपने जीवन को व्यवस्थित करने की आदतें लगाना; और इसके लिए छोटी-छोटी बातों का ध्यान देना. अपने सारे सामान सारी वस्तुओं से मोह नहीं तो प्रेम करना. जिससे प्रेम करते हैं, उसका ध्यान रखते है, और फिर व्यवस्थितता अपने आप आती है. छोटी-छोटी बातों में व्यवस्थितता की आदत लगती है तो बड़े कार्यों में भी व्यवस्थितता आती है.”
उसी प्रशिक्षण काल में पूर्णिमा की एक रात भारत भर से आए हम सभी 20-22 वर्ष के युवा शिक्षार्थी उनके साथ समुद्र किनारे अनौपचारिक गपशप लगाने बैठ गए थे. बहुत ही सरलता से उन्होंने उस पूर्ण चन्द्र को लेकर हमें प्रश्न पूछना शुरू किया और बातों बातों में हमें पता चला कि चन्दा मामा तो पूरे भारत का है. हम भले ही अलग-अलग राज्यों से आए थे, अलग-अलग भाषा, रीती परम्पराओं से थे, पर चन्द्र के सम्बन्ध में अपनी लोक कथाओं में एक जैसा ही वर्णन है. केवल भौगोलिक सीमा के कारण नहीं तो सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण भी भारत एक राष्ट्र है, इसका अनुभव उन्होंने बिना कोई भाषण दिए सहजता से कराया.
गत कुछ वर्षों से वे अस्वस्थ थे. पर आयु के 93 वर्ष में भी नियमित अनुशासित दिनचर्या का पालन करते थे. स्वास्थ्य लाभ हुआ तो आयु के 9वें दशक में असम के नलबाड़ी में विवेकानन्द केन्द्र की अखिल भारतीय बैठक के लिए भी आए. उनकी शारीरिक आयु और उनका उत्साह इसका कोई मेल न था. उनके मुख से हमने कभी भी “हमारे समय ऐसा था… आज कुछ ठीक नहीं … ” ऐसी बातें नहीं सुनीं. वे कभी भूतकाल की बातें नहीं करते थे, पर इतिहास को सही अर्थ में कैसे समझा जाए; भविष्य की योजनाएं कैसे बनाएं और वर्तमान की चुनौतियों का सामना कैसे करें, ऐसी ही बातें करते थे. 70 वर्षों का समाजकार्य का अनुभव होने पर भी कोई भी भाषण देना हो तो पूर्व तैयारी करते थे, श्रोताओं के अनुसार विचारों और शब्दों का चयन करते थे, लिखवाते थे, जो लिखा है वह सही लिखा है ना, उसका अनुवाद सही हुआ है ना, यह भी देखते थे.
एक प्रखर विचारवंत, धरातल से जुड़ा एक समर्पित कार्यकर्ता, एक सच्चा मार्गदर्शक, एक आधुनिक महर्षि के युग का अब अंत हुआ. किन्तु ऐसे सन्तों का सूर्य जैसे कभी अस्त नहीं होता. हमें लगता है सूर्य अस्त हुआ, पर वह तो हमारे आकाश में नहीं दिखने से भी कहीं ना कहीं, किसी दूसरे आकाश में प्रकाशवान रहता है. उसी प्रकार उनके विचारों की किरणें सदैव प्रकाश देती रहेंगी. उन्हें श्रद्धांजलि देना है तो भारत का मूल विचार, सनातन, हिन्दू धर्म संस्कृति को गहराई से समझना होगा. अपने जीवन में उतारना होगा. राष्ट्र के लिए, राष्ट्र के ध्येय के लिए समर्पित होकर हम सभी को अधिकाधिक कार्य करना होगा.
- अलकागौरी जोशी
जीवनव्रती कार्यकर्ता, विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी
साभार - विश्व संवाद केन्द्र, भारत
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